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करते हैं, ग्यारहवें में नहीं, तथा बारहवें में शुक्लध्यानका दूसरा पाया होता है, उसके प्रसादसे केवलज्ञान पाता है, और उसी भब में मोक्षको जाता है । इसलिये उत्तम संहननका कथन शुक्लध्यानकी अपेक्षासे है ।
परमात्मप्रकाश
आठवें गुणस्थानसे नीचे के चौथेसे लेकर सातवें तकं शुक्लध्यान नहीं होता, धर्मध्यान छहों संहननवालोंके है, श्रेणीके नीचे धर्मध्यान ही है, उसका निषेध किसी संहननमें नहीं है । ऐसा हो कथन तत्त्वानुशासन नामक ग्रन्थमें कहा है "यत्पुन: " इत्यादि । उसका अर्थ ऐसा है, कि जो वज्रकायके ही ध्यान होता है, ऐसा आगमका वचन है, वह दोनों श्रेणियों में शुक्लध्यान होनेकी अपेक्षा है, और श्रेणीके नोचे जो धर्मध्यान है, उसका निषेध ( न होना) किसी संहननमें नहीं कहा है, यह निश्चयसे जानना | रागद्व ेषके अभावरूप उत्कृष्ट यथाख्यातस्वरूप स्वरूपाचरण ही निश्चयचारित्र है, वह इस समय पंचमकालमें भरतक्षेत्र में नहीं है, इसलिये साधुजन अन्य चारित्रका आचरण करो ।
चारित्रके पांच भेद हैं, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय, यथाख्यात । उनमें इस समय इस क्षेत्र में सामायिक छेदोपस्थापना ये दो ही चारित्र होते हैं,. अन्य नहीं, इसलिये इनको ही आचरो । तत्त्वानुशासन में भी कहा है "चरितारो" इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है, कि इस समय यथाख्यात चारित्र के आच रण करनेवाले मौजूद नहीं हैं, तो क्या हुआ अपनी शक्तिके अनुसारः तपस्वीजन सामायिक छेदोपस्थापनाका आचरण करो । फिर श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने भी मोक्षपाहुड़ में ऐसा ही कहा है " अज्ज वि" । उसका तात्पर्य यह है, कि अब भी इस पंचमकालमें मन वचन कायकी शुद्धतासे आत्माका ध्यान करके यह जीव इन्द्र पदको पाता है, अथवा लोकान्तिकदेव होता है, और वहांसे च्युत होकर मनुष्यभव धारण करके मोक्षको पाता है ।
अर्थात् जो इस समय पहले के तीन संहनन तो नहीं हैं, परन्तु अर्धनाराच, कीलक, पाटिका ये आगे तीन हैं, इन तीनोंसे सामायिक छेदोपस्थापनाका आचरण करो, तथा धर्मध्यानको आचरो । धर्मध्यानका अभाव छहों संहननोंमें नहीं है, शुक्लध्यान पहले के तीन संहननों में ही होता है, उनमें भी पहला पाया ( भेद ) उपशमश्रेणीसम्बन्धो तीनों संहननोंमें है, और दूसरा तीसरा चौथा पाया प्रथम संहननवाले ही के होता है, ऐसा नियम है । इसलिये अब शुक्लध्यानके अभाव में भी हीन संहननवाल