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परमात्मप्रकाश
[ १४१ व्यवहारसम्यग्ज्ञान भव्यजीवके ही होता है, अभव्यके सर्वथा नहीं, क्योंकि अभव्यजीव मुक्तिका पात्र नहीं है । जो मुक्तिका पात्र होता है, उसीके व्यवहाररत्नत्रयको प्राप्ति होती है। व्यवहाररत्नत्रय परम्पराय मोक्षका कारण है, और निश्चयरत्नत्रय साक्षात् मुक्तिका कारण है, ऐसा तात्पर्य हुआ ।।३।।
अथ परमध्यानारूढो ज्ञानी समभावेन दुःखं सहमानः स एवाभेदन निर्जराहेतुभण्यते इति दर्शयति
दुक्खु वि सुक्खु सहंतु जिय णाणिउ झाण-णिलीणु । कम्महं णिज्जर-हेउ तउ बुच्चइ संग-विहीणु ॥३६॥ दुःखमपि सुखं सहमान: जीव ज्ञानी ध्याननिलीनः ।
कर्मणः निर्जराहेतुः तपः उच्यते संगविहीनः ।।३६।।
आगे परमध्यानमें आरूढ ज्ञानी जीव समभावसे दुःख सुखको सहता हुआ अभेदनयसे निर्जरा का कारण होता है, ऐसा दिखाते हैं-(जीव) हे जीव, (ज्ञानी) वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी (ध्याननिलीनः) आत्मध्यानमें लीन (दुःखं अपि सुखं) दुःख
और सुखको (सहमानः) समभावोंसे सहता हुआ अभेदनयसे (कर्मणो निर्जराहेतुः) शुभ अशुभ कर्मोकी निर्जराका कारण है, ऐसा भगवानने (उच्यते) कहा है, और (संगविहीनः तपः) बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह रहित परद्रव्यको इच्छाके निरोधरूप बाह्य अभ्यन्तर अनशनादि बारह प्रकारके तपरूप भी वह ज्ञानी है ।
- भावार्थ-यहां प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया, कि हे प्रभो; आपने ध्यानसे निर्जरा कही, वह ध्यान एकाग्रचित्तका निरोधरूप उत्तम संहननवाले मुनिके होता है, जहां उत्तमसंहनन ही नहीं है, वहां ध्यान किस तरहसे हो सकता है ? उसका समाधान श्रीगुरु कहते हैं-उत्तम संहननवाले मुनिके जो ध्यान कहा है, वह आठवें गुणस्थानसे लेकर उपशम क्षपकश्रेणीवालोंके जो शुक्लध्यान होता है, उसकी अपेक्षा कहा गया है । उपशमश्रेणी वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच, नाराच इन तीन संहननवालोंके होती है, उनके शुक्लध्यानका पहला पाया है, वे ग्यारहवें गुणस्थानसे नीचे आते हैं, और क्षपक श्रेणी एक वज्रवृषभनाराच संहननवालेके ही होती है, वे आठवें गुणस्थानमें क्षपक श्रेणी मांडते (प्रारम्भ करते) हैं, उनके आठवें गुणस्थानमें शुक्लध्यानका पहला पाया (भेद) होता है, वह आठवें नववें दशवें तथा दशवेंसे बारहवें गुणस्थानमें स्पर्श