________________
૪ ]
सो सम्यग्दृष्टिके तो यह दर्शन तत्त्वार्थश्रद्धानरूप होनेसे मोक्षका कारण है, जिसमें शुद्ध आत्म-तत्त्व ही उपादेय है, और मिथ्यादृष्टियोंके तत्त्वश्रद्धान नहीं होने से आत्माका दर्शन नहीं होता । मिथ्यादृष्टियोंके स्थूलरूप परद्रव्यका देखना जानना मन और इन्द्रियोंके द्वारा होता है, वह सम्यग्दर्शन नहीं है. इसलिये मोक्षका कारण भी नहीं है । सारांश यह है— कि तत्त्वार्थश्रद्धानके अभाव से सम्यक्त्वका अभाव है, और सम्यक्त्वके अभाव से मोक्षका अभाव है ||३४||
परमात्मप्रकाश
अथ छद्मस्थानां सचावलोकदर्शनपूर्वक ज्ञानं भवतीति प्रतिपादयतिदंसणपुव्वु हवेइ फुडु जं जीवहं विणा ।
त्थु - विसेसु मुगंतु जिय तं मुणि अविचलु खाणुं ||३५||
दर्शनपूर्वं भवति स्फुटं यत् जीवानां विज्ञानम् । वस्तुविशेषं जानन् जीव तत् मन्यस्व अविचलं ज्ञानम् ||३५||
आगे केवलज्ञानके पहले छद्मस्थोंके पहले दर्शन होता है, उसके बाद ज्ञान होता है, और केवली भगवान् के दर्शन और ज्ञाव एक साथ ही होते हैं— आगे पीछे नहीं होते, यह कहते हैं - (यत्) जो ( जीवानां) जीवोंके (विज्ञानं ) ज्ञान है, वह (स्फुटं ) निश्र्चयकरके (दर्शनपूर्व ) दर्शनके बाद में (भवति) होता है, (तत् ज्ञानं ) वह ज्ञान ( वस्तु विशेषं जानन् ) वस्तुकी विस्तीर्णताको जाननेवाला है, उस ज्ञानको (जीव ) हे जीव (अविचलं) संशय विमोह विभ्रम से रहित ( मन्यस्व ) तू जान ।
भावार्थ - जो सामान्यको ग्रहण करे, विशेष न जाने, वह दर्शन है, तथा जो वस्तुका विशेष वर्णन आकार जाने वह ज्ञान है । यह दर्शन ज्ञानका व्याख्यान किया । यद्यपि वह व्यवहारसम्यग्ज्ञान शुद्धात्माकी भावनाके व्याख्यानके समय प्रशंसा योग्य नहीं है, तो भी प्रथम अवस्था में प्रशंसा योग्य है, ऐसा भगवानने कहा है । क्योंकि चक्षु अचक्षु अवधि केवलके भेदसे दर्शनोपयोग चार तरहका होता है । उन चार भेदों में दूसरा भेद अचक्षुदर्शन मनसम्बन्धी निर्विकल्प भव्यजीवोंके दर्शनमोह चारित्रमोहके उपशम तथा क्षयके होनेपर शुद्धात्मानुभूति रुचिरूप वीतराग सम्यक्त्व होता है, और शुद्धात्मानुभूति में स्थिरतारूप वीतरागचारित्र होता है, उस समय पूर्वोक्त सत्ताके अवलोकनरूप मनसम्बन्धी निर्विकल्पदर्शन निश्चयचारित्र के बलसे विकल्प रहित निज शुद्धात्मानुभूतिके ध्यानकर सहकारी कारण होता है । इसलिये व्यवहारसम्यग्दर्शन और