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परमात्मप्रकाश
[१३७ अनेक तरहकी स्तुति करनी, और मनसे उनके नामके अक्षर तथा उनका रूपादिक ध्यावने योग्य हैं, तो भी पूर्वोक्त निश्चयरत्नत्रयकी प्राप्तिके समय केवल ज्ञानादि अनंतगुणरूप परिणत जो निज शुद्धात्मा वही आराधने योग्य है, अन्य नहीं। तात्पर्य यह है कि ध्यान करने योग्य या तो निज आत्मा है, या पंचपरमेष्ठी हैं, अन्य नहीं, प्रथम अवस्थामें तो पंचपरमेष्ठीका ध्यान करना योग्य है, और निर्विकल्पदशामें निजस्वरूप हो ध्यावने योग्य है, निजरूप ही उपादेय हैं ।।३१॥ . . ...... अथ ये ज्ञानिनो निर्मलरत्नत्रयमेवात्मानं मन्यन्ते शिवशब्दवाच्यं ते मोक्षपदाराधकाः सन्तो निजात्मानं ध्यायन्तीति निरूपयति..... जे रयण-त्तउ णिम्मलउ णाणिय अप्पु भणंति ।
ते आराहय सिव-पयह णिय-अप्पा झायंति ॥३२॥ ये रत्नत्रयं निर्मलं ज्ञानिनः आत्मानं भणन्ति । ते आराधकाः शिवपदस्य निजात्मानं ध्यायन्ति ॥३२॥
आगे जो ज्ञानी निर्मल रत्नत्रयको ही आत्मस्वरूप मानते हैं, और अपनेको ही शिव जानते हैं, वे ही मोक्षपदके धारक हुए निज आत्माको ध्यावते हैं, ऐसा निरूपण करते हैं- (ये ज्ञानिनः) जो ज्ञानी (निर्मलं रत्नत्रयं) निर्मल रागादि दोष रहित रत्नत्रयको (आत्मानं) आत्मा (भणंति) कहते हैं (ते) वे (शिवपदस्य आराधकाः) शिवपदके आराधक हैं, और वे ही (निजात्मानं) मोक्षपदके आराधक हुए. अपने आत्मा को (ध्यायंति) ध्यावते हैं। .
भावार्थ-जो कोई वीतराग स्वसंवेदनज्ञानी सम्यग्दर्शच सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्ररूप आत्माको मानते हैं, वे ही मोक्षपदके आराधक हुए निश्चयनयकर केवल निजरूपको हो ध्यावते हैं ॥३२॥
अथात्मानं गुणस्वरूपं रागादि दोपरहितं ये ध्यायन्ति ते शीघ्र नियमेन मोक्षं लभन्त इति प्रकटयति... अप्पा गुणमउ णिम्मलउ अणुदिणु जे झायंति ।
- ते पर णियमें परम-मुणि लहु णिव्वाणु लहंति ॥३३॥ . आत्मानं गुणमयं निर्मलं अनुदिनं ये. ध्यायन्ति ।
ते परं नियमेन परममुनयः लघु निर्वाणं लभन्ते ।।३३॥