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परमात्मप्रकाश
[१४५ पूर्व के कर्मोंका क्षय करता है, और नवीन कर्मोको रोकता है। ऐसा ही कथन पद्यनन्दिपच्चीसी में भी है। “साम्यमेव” इत्यादि । इसका तात्पर्य यह है, कि आदरसे समभावको ही धारण करना चाहिये, अन्य ग्रन्थ के विस्तारोंसे क्या, समस्त पंथ तथा सकल द्वादशांग इस समभावरूप सूत्रकी हो टीका है ।।३।।
___अथ यः समभावं करोति तस्यैव निश्चयेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि नान्यस्येति दर्शयति
दसणु णाणु चरित्तु तसु जो सम भाउ करेइ । इयरहं एक्कु वि अस्थि णवि जिणवरु एउ भणेइ ॥४०॥ दर्शनं ज्ञानं चारित्रं तस्य यः समभावं करोति ।
इतरस्य एकमपि अस्ति नैव जिनवरः एवं भणति ॥४०॥ ...... आगे जो जीव समभावको करता है, उसीके निश्चयसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान,
सम्यक्चारित्र होता है, अल्यके नहीं, ऐसा दिखलाते हैं-(दर्शनं ज्ञानं चारित्रं) सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र (तस्य) उसीके निश्चयसे होते हैं, (यः) जो यति (समभावं) समभाव (करोति) करता है, (इतरस्य) दूसरे समभाव रहित जीवके (एक अपि) तीन रत्नों में से एक भी (नव अस्ति) नहीं है, (एवं) इस प्रकार (जिनवरः) जिनेन्द्रदेव (भरणति) कहते हैं।
भावार्थ-निश्चयनयसे निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचिरूप सम्यग्दर्शन उस समभावके धारकके होता है, और निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न हुआ जो वीतराग परमानन्द मधुर रसका आस्वाद उस स्वरूप आत्मा है, तथा हमेशा आकुलताके उपजानेवाले काम क्रोधादिक हैं, वे महा कटुक रसरूप अत्यन्त विरस हैं, ऐसा जानना, वह सम्यग्ज्ञान और स्वरूपके आचरणरूप वीतरागचारित्र भी उसी समभावके धारण करनेवालेके ही होता है, जो मुनीश्वर वीतराग निर्विकल्प परम सामायिकभावकी भावनाके अनुकूल (सन्मुख) निर्दोष परमात्माके यथार्थ श्रद्धान यथार्थ ज्ञान और स्वरूपका यथार्थ आचरणरूप अखण्डभव धारण करता है, उसीके परमसमाधिकी सिद्धि होती है ।।४०॥
अथ यदा ज्ञानी जीव उपशाम्यति तदा संयतो भवति कामक्रोधादिकपायसंगतः पुनरसंयतो भवतीति निश्चिनोति
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