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________________ १२८ ] परमात्मप्रकाश भावार्थ-जगत् में धर्मद्रव्य तो एक ही है, वह असंख्यातप्रदेशी है, अधर्मद्रव्य भी एक है, असंख्यात प्रदेशी है, जीव अनन्त हैं, सो एक-एक जीव असंख्यात प्रदेशी हैं, आकाशद्रव्य एक ही है, वह अनन्तप्रदेशी है, ऐसा जानो। पुद्गल एक प्रदेशसे लेकर अनंतप्रदेश तक है । एक परमाणु तो एक प्रदेशी है, और जैसे-जैसे परमाणु मिलते जाते हैं, वैसे-वैसे प्रदेश भी बढ़ते जाते हैं, वे संख्यात असंख्यात अनन्त प्रदेश तक जानने, अनंत परमाणु इकट्ठे होवें, तब अनंत प्रदेश कहे जाते हैं । अन्य द्रव्योंके तो विस्ताररूप प्रदेश हैं, और पुद्गलके स्कन्धरूप प्रदेश हैं । पुद्गलके कथनमें प्रदेश शब्दसे परमारण लेना, क्षेत्र नहीं लेना, पुद्गलंका प्रचार लोकमें ही है, अलोकाकाशमें नहीं है, इसलिये अनंत क्षेत्र प्रदेशके अभाव होनेसे क्षेत्र प्रदेश न जानने । जैसे जैसे परमाणु मिल जाते हैं, वैसे वैसे प्रदेशोंकी बढ़वारी जाननी। इसी दोहेके कथनमें पाठान्तर "पुग्गलु तिविहु पएसु" ऐसा है उसका अर्थ यह है कि पुद्गलके संख्यात, असंख्यात, अनन्त प्रदेश परमाणुओंके मेलसे जानना चाहिये, अर्थात् एक परमाणु एक प्रदेश, बहुत परमाणु बहु प्रदेश, यह जानना । सूत्रमें शुद्धनिश्चयकर द्रव्यकर्म के अभावसे यह जीव अमूर्तीक है, और मिथ्यात्व रागादिरूप भावकर्म संकल्प विकल्पके अभावसे शुद्ध है, लोकाकाश प्रमाण असंख्यातप्रदेशवाला है, ऐसा जो निज शुद्धात्मा वही वीतरागनिर्विकल्पसमाधिदशामें साक्षात् उपादेय है, यह जानना ।।२४॥ अथ लोके यद्यपि व्यवहारेणैकक्षेत्रावगाहेन तिष्ठन्ति द्रव्याणि तथापि निश्चयेन संकरव्यतिकरपरिहारेण कृत्या स्वकीयस्वकीयस्वरूपं न त्यजन्तीति दर्शयति लोयागासु धरेवि जिय कहियई दव्वई जाई । एकहिं मिलियइइत्थु जगि सगुणहिं णिवसहिं ताई ॥२५॥ लोकाकाशं धृत्वा जीव कथितानि द्रव्याणि यानि । एकत्वे मिलितानि अत्र जगति स्वगुणेषु निवसन्ति तानि ॥२५॥ आगे लोकमें यद्यपि व्यवहारनयकर ये सब द्रव्य एक क्षेत्रावगाहसे तिष्ठ रहे हैं, तो भी निश्चयनयकर कोई द्रव्य किसीसे नहीं मिलता, और कोई भी अपने-अपने स्वरूपको नहीं छोड़ता है, ऐसा दिखलाते हैं-(जीव) हे जीव, (अत्र जगति) इम संसारमें (यानि द्रव्याणि कथितानि) जो द्रव्य कहे गये हैं, (तानि) वे सब (लोकाकाश धृत्वा) लोकाकाशमें स्थित हैं, लोकाकाश तो आधार है, और ये सब आधेय हैं, (एकत्व
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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