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सहायी सब जगह कहा है, और कालद्रव्य वर्तनाका सहायी है, गति सहायी किस जगह कहा है ? उसका समाधान श्रीपंचास्तिकाय में कुन्दकुन्दाचार्यने क्रियावंत और अक्रियावत के व्याख्यान में कहा है ।
"जीवा पुग्गल” इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है कि जीव और पुद्गल ये दोनों क्रियावंत हैं, और शेष चार द्रव्य अक्रियावाले हैं, चलन- हलन क्रियासे रहित हैं । जीवको दूसरी गतिमें गमन का कारण कर्म है, वह पुद्गल है और पुद्गलको गमनका कारण काल है । जैसे धर्मद्रव्यके मौजूद होनेपर भी मच्छों को गमनसहायी जल है, उसी तरह पुगलको धर्मद्रव्य के होनेपर भी द्रव्यकाल गमनका सहकारी कारण है । यहां निश्चयनयकर गमनादि क्रियासे रहित निःक्रिय सिद्धस्वरूपके समान निःक्रिय निर्द्वद्व निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, यह शास्त्रका तात्पर्य हुआ । इसी प्रकार दूसरे ग्रन्थोंमें भी निश्चयकर हलन चलनादि क्रिया रहित जीवका लक्षण कहा है । " यावत्क्रिया" इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है कि जबतक इस जीवके हलन चलनादि क्रिया है, गति से गत्यन्तरको जाना है, तबतक दूसरे द्रव्यका सम्बन्ध है, जब दूसरेका सम्बन्ध मिटा, अद्वैत हुआ, तब निकल अर्थात् शरीर से रहित निःक्रिय है, उसके हलन चलनादि क्रिया कहांसे हो सकती हैं, अर्थात् संसारी जीवके कर्मके सम्बन्धसे गमन है, सिद्धभगवान् कर्मरहित निःक्रिय हैं, उनके गमनागमन क्रिया कभी नहीं हो सकती || २३॥
अथ पञ्चास्तिकायनार्थं कालद्रव्यमप्रदेशं विहाय कस्य द्रव्यस्य कियन्तः प्रदेशा भवन्तीति कथयति -
परमात्मप्रकाश
धमाधम्मु वि एक्कु जिउ ए जि असंख्य पदेस । गयणु अणंत पसु मुणि बहु-विह पुग्गल देस ॥२४॥ धर्माधर्मो अपि एकः जीवः एतानि एव असंख्य प्रदेशानि । गगनं अनन्तप्रदेशं मन्यस्व बहुविधा: पुद्गलदेशाः ||२४||
आगे पंचास्तिकायके प्रगट करने के लिये कालद्रव्य अप्रदेशीको छोड़कर अन्य पांच द्रव्यों में से किसके कितने प्रदेश हैं, यह कहते हैं - ( धर्माधर्मो) धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य ( अपि एक जीवः ) और एक जीव ( एतानि एवं ) इन तीनों ही को (असंख्य प्रदेशानि ) असंख्यात प्रदेशी ( मन्यस्व ) तू जान ( गगनं) आकाश (अनंतप्रदेश) अनन्तप्रदेशी है, (पुद्गलप्रदेशाः ) और पुद्गल के प्रदेश (बहुविधा:) बहुत प्रकार के हैं, परमाणु तो एकप्रदेशी है, और स्कन्ध संख्यात प्रदेश असंख्यात प्रदेश तथा अनन्तप्रदेशी भी होते हैं ।