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परमात्मप्रकाश
. [ १२६ मिलितानि) ये द्रव्य एक क्षेत्र में मिले हुए रहते हैं, एक क्षेत्रावगाही हैं, तो भी (स्वगुणेषु) निश्चयनयकर अपने अपने गुणोंमें ही (निवसंति) निवास करते हैं, परद्रव्यसे मिलते नहीं हैं।
भावार्थ -यद्यपि उपचरितअसद्भ तव्यवहारनयकर आधाराधेयभावसे एक क्षेत्रावगाहकर तिष्ठ रहे हैं, तो भी शुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे परद्रव्यसे मिलनेरूप संकरदोषसे रहित हैं, और अपने अपने सामान्य गुण तथा विशेष गुणोंको नहीं छोड़ते हैं । यह कथन सुनकर प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया कि हे भगवन्. परमागममें लोकाकाश तो असंख्यात प्रदेशी कहा है, उस असंख्यात प्रदेशी लोकमें अनन्त जीव किस तरह समा सकते हैं ? क्योंकि एक-एक जीवके असंख्यात असंख्यात प्रदेश हैं, और एक-एक जोवमें अनन्तानन्त पुद्गलपरमाणु कर्म नोकर्मरूपसे लग रही है, और उसके सिवाय अनन्तगुणें अन्य पुद्गल रहते हैं, सो ये द्रव्य असंख्यातप्रदेशी लोकमें कैसे समा गये ? इसका समाधान श्रीगुरु करते हैं।
आकाशमें अवकाशदान (जगह देनेकी) शक्ति है, उसके सम्बन्धसे समा जाते हैं । जैसे एक गूढ़ नागरस गुटिकामें शत सहस्र लक्ष सुवर्ण संख्या आ जाती है, अथवा एक दोपकके प्रकाशमें बहुत दीपकोंका प्रकाश जगह पाता है, अथवा जैसे एक राखके घड़ेमें जलका घड़ा अच्छी तरह अवकाश पाता है, भस्ममें जल शोषित हो जाता है, अथवा जैसे एक ऊंटनी के दूधके घड़े में शहदका घड़ा समा जाता है, अथवा एक भूमि घरमें ढोल घण्टा आदि बहुत बाजोंका शब्द अच्छी तरह समा जाता है, उसी तरह एक लोकाकाशमें विशिष्ट अवगाहन शक्तिके योगसे अनंत जोव और अनंतानन्त पुद्गल अवकाश पाते हैं, इसमें विरोध नहीं है, और जीवों में परस्पर अवगाहनशक्ति है । ऐसा ही कथन परमागममें कहा है-"एगणिगोद" इत्यादि ।
- इसका अर्थ ऐसा है कि एक निगोदिया जीवके शरीरमें जीवद्रव्यके प्रमाणसे दिखलाये गये जितने सिद्ध हैं, उन सिद्धोंसे अनन्त गुणे जीव एक निगोदियाके शरीर में हैं, और निगोदियाका शरोर अंगुलके असंख्यातवें भाग है, सो ऐसे सूक्ष्म शरीर में अनन्त जीव समा जाते हैं, तो लोकाकाशमें समा जाने में क्या अचम्भा है ? अनन्तानन्त पुद्गल लोकाकाशमें समा रहे हैं, उसकी "ओगाढ" इत्यादि गाथा है । उसका अर्थ यह है कि सब प्रकार सब जगह यह लोक पुद्गल कायोंकर अवगाढ़गाढ़ भरा है, ये युद्धगल काय अनन्त हैं; अनेक प्रकारके भेदको घरते हैं, कोई सूक्ष्म है, कोई वादर हैं ।