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परमात्मप्रकाश भी मत, मौनसे रह, और कुछ चिन्तवन मत कर । सब बातोंको छोड़, आत्मामें आपको लीन कर, यह ही परमध्यान है । श्रोतत्त्वसारमें भी सविकल्प निर्विकल्प निश्चयमोक्ष-मार्गके कथनमें यह गाथा कही है कि "जं पुण सगयं" इत्यादिः। इसका सारांश यह है कि जो आत्मतत्त्व है, वह भी सविकल्प निर्विकल्पके भेदसे दो प्रकारका है, जो विकल्प सहित है, वह तो आस्रव सहित है, और जो. निर्विकल्प है, वह आस्रव रहित है ।।१४।।
एवं पूर्वोक्तकोनविंशतिसूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गप्रतिपादन रूपेण सूत्रत्रयं गतम् । इदानीं चतुर्दशसूत्रपर्यन्तं व्यवहारमोक्षमार्गप्रथमावयवभूतव्यवहारसम्यक्त्वं मुख्यवृत्त्या प्रतिपादयति । तद्यथा
दव्बई जाणइ जहठियई तह जगि मण्णइ जो जि । अप्पहं केरउ भावडउ अविचलु दंसणु सो जि ॥१५॥ द्रव्याणि जानाति यथास्थितानि तथा जगति मन्यते य एव । .
आत्मनः सम्बन्धी भावः अविचल: दर्शनं स एव ।।१५।।
इस तरह पहले महास्थल में अनेक अन्तस्थलोंमेंसे उन्नीस दोहोंके स्थल में तीन दोहोंसे निश्चय व्यवहार मोक्ष-मार्गका कथन किया ।
आगे चौदह दोहापर्यन्त व्यवहारमोक्ष-मार्गका पहला अंग व्यवहारसम्यक्त्वको मुख्यतासे कहते हैं-(य एव) जो (द्रव्यारिण) द्रव्योंको (यथास्थितानि) जैसा उनका स्वरूप है, वैसा (जानाति) जानें, (तथा) और उसो तरह (जगति) इस जगतम (मन्यते) निर्दोष श्रद्धान करे, (स एव) वही (आत्मनः संबंधी) आत्माका (अविचलः भावः) चलमलिनावगाढ दोष रहित निश्चल भाव है, (स एव) वही आत्मभाव (दर्शन) सम्यक्दर्शन है।
भावार्थ-यह जगत छह द्रव्यमयी है, सो इन द्रव्योंको अच्छी तरह जानकर श्रद्धान करे, जिसमें सन्देह नहीं वह सम्यग्दर्शन है, यह सम्यग्दर्शन. आत्माका निज स्वभाव है । वीतरागनिर्विकल्प स्वसंवेदन निश्च यसम्यग्ज्ञान उसका परम्पराय कारण जो परमागमका ज्ञान उसे अच्छी तरह जान, और मनमें मानें, यह निश्चय कर कि इन सब द्रव्योंमें निज आत्मद्रव्य ही ध्यावने योग्य है, ऐसा रुचिरूप जो निश्चय सम्यक्त्व है, उसका परम्पराय कारण व्यवहारसम्यक्त्व देव गुरु धर्मकी श्रद्धा उसे स्वीकार कर ।