________________
परमात्मप्रकाश
[ ११६ व्यवहारसम्यक्त्वके पच्चीस दोष हैं, उनको छोड़े। उन पच्चीसको "मूढ़त्रयं" इत्यादि श्लोकमें कहा है । इसका अर्थ ऐसा है कि जहां देव कुदेवका विचार नहीं है, वह तो देवमूढ़, जहां सुगुरु कुगुरुका विचार नहीं है, वह गुरुमूढ़, जहां धर्म कुधर्मका विचार नहीं है, वह धर्म मूढ़ ये. तोन मूढ़ता; और जातिमद, कुलमद, धनमद, रूपमद,, तपमद, बलमद, विद्यामद, राजमद ये आठ मद । कुगुरु, कुदेव, कुधर्म इनकी और इनके आराधकोंकी जो प्रशंसा वह छह अनायतन और निःशंकितादि आठ अंगोंसे विपरीत शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़ता, परदोष कथन, अथिरकरण, साधर्मियोंसे स्नेह नहीं रखना, और जिनधर्मकी प्रभावना नहीं करना, ये शंकादि आठ मल, इस प्रकार सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष हैं, इन दोषोंको छोड़कर तत्त्वोंकी श्रद्धा करें, वह व्यवहारसम्यग्दर्शन कहा जाता है।
जहां अस्थिर बुद्धि नहीं है, और परिणामोंकी मलिनता नहीं, और शिथिलता नहीं, वह सम्यक्त्व है । यह सम्यग्दर्शन ही कल्पवृक्ष कामधेनु चिंतामणि है, ऐसा जानकर भोगोंकी वांछारूप जो विकल्प उनको छोड़कर सम्यक्त्वका ग्रहण करना चाहिये। ऐसा कहा है 'हस्ते' इत्यादि जिसके हाथमें चिन्तामणि है, धनमें कामधेनु है, और जिसके घर में कल्पवृक्ष है, उसके अन्य क्या प्रार्थनाकी आवश्यकता है ? कल्पवृक्ष कामधेनु चिन्तामणि तो कहने मात्र हैं, सम्यक्त्व ही कल्पवृक्ष कामधेनु चिन्तामणि है, ऐसा जानना ॥१५॥
अथ यै पद्रव्यैः सम्यक्त्वविषयभूतै स्त्रिभुवनं भृतं तिष्ठति तानीदृक् जानीहीत्यभिप्रायं मनसि संप्रधार्य सूत्रमिदं कथयति
दव्वइ जाहि ताइ छह तिहुयणु भरियउ जेहिं ।
आइ-विणास-विवज्जियहिं णाणिहि पभणियएहिं ॥१६॥ द्रव्याणि जानीहि तानि षट् त्रिभुवनं भृतं यः । ___ आदिविनाशविवजितैः ज्ञानिभिः प्रभणितैः ॥१६॥
आगे सम्यक्त्व के कारण जो छह द्रव्य हैं, उनसे यह तीनलोक भरा हुआ है, उनको यथार्थ जानो, ऐसा अभिप्राय मन में रखकर यह गाथा-सूत्र कहते हैं-हे प्रभाकरभट्ट, तू (तानि षड्द्रव्याणि) उन छहों द्रव्योंको (जानीहि) जान, (यैः) जिन द्रव्योंसे (त्रिभुवनं भूतं) यह तीन लोक भर रहा है, वे छह द्रव्य (ज्ञानिभिः) ज्ञानियोंने (आदिविनाशविजितः) आदि अन्तकर रहित द्रव्याथिकन यसे (प्रभरिणतः) कहे हैं।..