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परमात्मप्रकाश
त्यागकर शुद्धात्मा ही उपादेय है, इस प्रकार रुचिरूप निश्चय करता है, वीतराग स्वसंवेदनलक्षण ज्ञानसे जानता है, और सब रागादिक विकल्पोंके त्यागसे निजस्वरूपमें स्थिर होता है, सो निश्चयरत्नत्रयको परिणत हुआ पुरुष ही मोक्षका मार्ग है । ऐसा कथन सुनकर प्रभाकरभट्टने प्रश्न किया कि हे प्रभो; तत्त्वार्थश्रद्धान रुचिरूप सम्यग्दर्शन वह मोक्षका मार्ग है, इसमें तो दोष नहीं और तुमने कहा कि जो देखे वह दर्शन, जानें वह ज्ञान, और आचरण करे वह चारित्र है । सो यह देखने रूप दर्शन कैसे मोक्षका मार्ग हो सकता है ? और जो कभी देखने का नाम दर्शन कहो तो देखना अभव्यको भी होता है, उसके मोक्ष-मार्ग तो नहीं माना है ?
यदि अभव्यके मोक्ष-मार्ग होवे; तो आगमसे विरोध आवे । आगममें तो यह निश्चय है कि अभव्यको मोक्ष नहीं होता। उसका समाधान यह है कि अभव्योंके देखनेरूप जो दर्शन है, वह बाह्यपदार्थों का है, अन्तरंग शुद्धात्मतत्त्वका दर्शन तो अभव्योंके नहीं होता, उसके मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियोंका उपशम क्षयोपशम क्षय नहीं है, तथा शुद्धात्मा ही उपादेय हैं, ऐसी रुचिरूप सम्यग्दर्शन भी उसके नहीं है और चारित्रमोहके उदयसे वीतराग चारित्ररूप निर्विकल्प शूद्धात्मका सत्तावलोकन भी उसके कभी नहीं है । तात्पर्य यह है, निश्चयकर अभेदरत्नत्रयको परिणत हुआ निज शुद्धात्मा ही मोक्षका मार्ग है । ऐसी ही द्रव्यसंग्रहमें साक्षीभूत गाथा कही है । “रयणत्तय” इत्यादि। उसका अर्थ ऐसा है कि रत्नत्रय आत्माको छोड़कर अन्य (दूसरी) द्रव्योंमें नहीं रहता, इसलिये मोक्षका कारण उन तीनमयी निज आत्मा ही है ।।१३।।।
अथ भेदरत्नत्रयात्मक व्यवहारमोक्षमार्ग दर्शयतिजं बोल्लइ ववहारु-णउ दंसणु णाणु चरित्तु । तं परियाणहि जीव तुहूँ में परु होहि पवित्तु ॥१४॥ यदु व ते व्यवहारनयः दर्शनं ज्ञानं चारित्रम् ।
तत् परिजानीहि जीव त्वं येन परः भवसि पवित्रः ।।१४।।
आगे भेदरत्नत्रयस्वरूप व्यवहार वह परम्पराय मोक्षका मार्ग है, ऐसा दिखलाते हैं--(जीव) हे जीव, (व्यवहारनयः) व्यवहारनय (यत) जो (दर्शनं ज्ञान चारित्रं) दर्शन ज्ञान चारित्र इन तीनोंको (बते) कहता है, (तत्) उस व्यवहाररत्नप्रयको (त्वं) तू (परिजानीहि) जान, (येन) जिससे कि (परः पवित्रः) उत्कृष्ट अर्थात् पवित्र (भवसि) होवे ।