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परमात्मप्रकाश
[ ११३ निर्विकल्पस्वसंवेदन ज्ञानियोंके समस्त पंच इन्द्रियोंके विषय और मनके विकल्प-जालोंकी रुकावट होनेपर विशेषतासे निर्व्याकुल सुख उपजता है। इसलिये ये दो बातें प्रत्यक्ष ही दृष्टि पड़ती हैं। जो पुरुष निरोग और चिंता रहित हैं, उनके विषय सामग्रीके विना ही सुख भासता है, और जो महामुनि शुद्धोपयोग अवस्थामें ध्यानारूढ़ हैं, उनके निर्व्याकुलता प्रगट ही दीख रही है, वे इन्द्रादिक देवोंसे भी अधिक सुखी हैं। इस कारण जब संसार अवस्थामें ही सुखका मूल निर्व्याकुलता दीखती है, तो सिद्धोंके सुखकी बात ही क्या है ? यद्यपि वे सिद्ध दृष्टिगोचर नहीं हैं, तो भी अनुमान कर ऐसा जाना जाता है, कि सिद्धोंके भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म नहीं तथा विषयोंकी प्रवृत्ति नहीं है, कोई भी विकल्प-जाल नहीं है, केवल अतीन्द्रिय आत्मीक-सुख ही है, वही सुख उपादेय है, अन्य सुख सब दुःस्वरूप ही हैं । जो चारों गतियोंकी पर्यायें हैं, उनमें कदापि सुख नहीं है, सुख तो सिद्धोंके है, या महामुनीश्वरोंके सुखका लेशमात्र देखा जाता है, दूसरोंके जगतको विषय-वासनाओंमें सुख नहीं है ऐसा ही कथन श्रीप्रवचनसारमें किया है । "अइसय" इत्यादि ।
सारांश यह है, कि जो शुद्धोपयोगकर प्रसिद्ध ऐसे श्रीसिद्धपरमेष्ठी हैं, उनके अतीन्द्रिय सुख है, वह सर्वोत्कृष्ट है, और आत्मजनित है, तथा विषय-वासनासे रहित है, अनुपम है, जिसके समान सुख तीन लोकमें भी नहीं है, जिसका पार नहीं ऐसा बाधारहित सुख सिद्धोंके है ।।६।।
अथ यस्मिन् मोक्षे पूर्वोक्तमतीन्द्रियसुखमस्ति तस्य मोक्षस्य स्वरूपं कथयति
जीवहं सो पर मोक्खु मुणि जो परमप्पय-लाहु । कम्म-कलंक-विमुक्काहं णाणिय बोल्लहिं साहू ॥१०॥ जीवानां तं परं मोक्षं मन्यस्व यः परमात्मलाभः ।
कर्मकलङ्कविमुक्तानां ज्ञानिनः अवन्ति साधवः ।।१०।।
आगे जिस मोक्ष में ऐसा अतीन्द्रियसुख है, उस मोक्षका स्वरूप कहते हैं-हे प्रभाकरभट्ट; जो (कर्मकलंकविमुक्तानां जीवानां) कर्मरूपी कलंकसे रहित जीवोंको (यः परमात्मलाभः) जो परमात्मकी प्राप्ति है (तं परं) उसीको नियमसे तू (मोक्षं मन्यस्व) मोक्ष जान, ऐसा (ज्ञानिनः साधवः) ज्ञानवान् मुनिराज (अवंति) कहते हैं, रत्नत्रयके योगसे मोक्षका साधन करते हैं, इससे उनका नाम साधु है ।