________________
११२ ]
परमात्मप्रकाश
व्यथ भुवनत्रयेऽपि मोक्षं मुक्त्वा अन्यत्परमसुखकारणं नास्तीति निश्चिनोतितिहुयणि जीवहं जत्थि वि सोक्खहं कारणु कोइ । मुक्खु मुविणु एक्कु पर तेरावि चिंतहि सोइ ॥ ॥ त्रिभुवने जीवानां अस्ति नैव सुखस्य कारणं किमपि । मोक्षं मुक्त्वा एकं परं तेनैव चिन्तय तमेव ॥ ६ ॥
अब तीन लोकमें मोक्षके सिवाय अन्य कोई भी परमसुखका कारण नहीं है, ऐसा निश्चय करते हैं - (त्रिभुवने) तीन लोक में (जीवानां) जीवोंको (मोक्षं मुक्त्वा ) मोक्ष के सिवाय ( किमपि ) कोई भी वस्तु ( सुखस्य कारणं) सुखका कारण (नैव) नहीं (अस्ति ) है, एक सुखका कारण मोक्ष ही है (तेन) इस कारण तू ( परं एकं तं एव) नियमसे एक मोक्षका ही ( विचितय ) चिन्तवन कर जिसे कि महामुनि भी चिन्तवन करते हैं ।
भावार्थ — श्रीयोगीन्द्राचार्य प्रभाकरभट्ट से कहते हैं कि वत्स; मोक्ष के सिवाय अन्य सुखका कारण नहीं है, और आत्म ध्यानके सिवाय अन्य मोक्षका कारण नहीं है, इसलिये तू वीतरागनिर्विकल्पसमाधि में ठहरकर निज शुद्धात्म स्वभावको ही ध्याव । यह श्रीगुरु आज्ञा की । तब प्रभाकरभट्टने विनती की, हे भगवन्; तुमने निरन्तर अतीन्द्री मोक्ष-सुखका वर्णन किया है, सो ये जगत के प्राणी अतीन्द्रिय सुखको जानते ही नहीं हैं, इन्द्रिय सुखको ही सुख मानते हैं । तब गुरुने कहा कि हे प्रभाकरभट्ट; कोई एक पुरुष जिसका चित्त व्याकुलता रहित है, पंचेन्द्रियके भोगोंसे रहित अकेला स्थित है, उस समय किसी पुरुषने पूछा कि तुम सुखी हो । तब उसने कहा कि सुखसे तिष्ठ रहे हैं, उस समयपर विषय-सेवनादि सुख तो है ही नहीं, उसने यह क्यों कहा कि हम सुखी हैं । इसलिये यह मालूम होता है, सुख नाम व्याकुलता रहितका है, सुखका मूल निर्व्याकुलपना है, वह निर्व्याकुल अवस्था आत्मामें ही है, विषय- सेवन में नहीं ।
भोजनादि जिह्वा इन्द्रियका विषय भी उस समय नहीं है, स्त्रीसेवनादि स्पर्श का विषय नहीं है, और गंधमाल्यादिक नाकका विषय भी नहीं है, दिव्य स्त्रियोंका रूप अवलोकनादि नेत्रका विषय भी नहीं, और कानोंका मनोज्ञ गीत वादिनादि शब्द विषय भी नहीं हैं, इसलिये जानते हैं कि सुख आत्मामें ही है । ऐसा तू निश्चयकर, जो एकोदेश विपय-व्यापारसे रहित हैं, उनके एकोदेश थिरताका सुख है, तो वीतराग