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परमात्मप्रकाश
[ १११ सारता लिये हुए है । ऐसा परमसुख सिद्धोंके है, अन्यके नहीं है । यहां तात्पर्य यह है कि हमेशा मोक्षका ही सुख अभिलाषा करने योग्य है, और संसार-पर्याय सब हेय है ।। ७ ।।
अथ सर्वेषां परमपुरुषाणां मोक्ष एव ध्येय इति प्रतिपादयतिहरि-हर-बंभु वि जिणवर वि मुणि-वर-विंद वि भव्य । परम-णिरंजणि मणु धरिवि मुक्खु जि झायहि सव्व ॥८॥ हरिहरब्रह्माणोऽपि जिनवरा अपि मुनिवरवृन्दान्यपि भव्याः । परमनिरञ्जने मनः धृत्वा मोक्षं एव ध्यायन्ति सर्वे ॥ ८ ॥
आगे सभी महान पुरुषोंके मोक्ष ही ध्यावने योग्य हैं ऐसा कहते हैं-(हरिहरब्रह्माणोऽपि) नारायण वा इन्द्र रुद्र अन्य ज्ञानी पुरुष (जिनवरा अपि) श्रीतीर्थङ्कर परमदेव (मूनिवरवंदान्यपि) मुनीश्वरोंके समूह तथा (भव्याः) अन्य भी भव्यजीव (परमनिरंजने) परम निरंजनमें (मनः धृत्वा) मन रखकर (सर्वे) सब ही (मोक्ष) मोक्षको (एव) ही (ध्यायंति) ध्यावते हैं । यह मन विषयकषायोंमें जो जाता है, उसको पोछे लौटाकर अपने स्वरूपमें स्थिर अर्थात् निर्वाणका साधनेवाला करते हैं ।
भावार्थ-श्रीतीर्थङ्करदेव तथा चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव महादेव इत्यादि सब प्रसिद्ध पुरुष अपने शुद्ध ज्ञान अखण्ड स्वभाव जो निज आत्मद्रव्य उसका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप जो अभेदरत्नत्रयमय समाधिकर उत्पन्न वीतराग सहजानन्द अतीन्द्रियसुखरस उसके अनुभवसे पूर्ण कलशकी तरह भरे हुए निरंतर निराकार निजस्वरूप परमात्माके ध्यानमें स्थिर होकर मुक्त होते हैं । कैसा वह ध्यान है, कि ख्याति (प्रसिद्धि) पूजा (अपनी महिमा) और धनादिकका लाभ इत्यादि समस्त विकल्प-जालोंसे रहित है। यहां केवल आत्म ध्यान हीको मोक्ष-मार्ग बतलाया है, और अपना स्वरूप ही ध्यावने योग्य है । तात्पर्य यह है कि यद्यपि व्यवहारनयकर प्रथम अवस्था में वीतरागसर्वज्ञको स्वरूप अथवा वीतरागके नाममन्त्रके अक्षर अथवा वीतरागके सेवक महामुनि ध्यावने योग्य हैं, तो भी वीतराग निर्विकल्प तीन गुप्तिरूप परमसमाधि के समय अपना शुद्ध आत्मा ही ध्यान करने योग्य है, अन्य कोई भी दूसरा पदार्थ पूर्ण अवस्थामें ध्यावने योग्य नहीं है ।।८।।