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परमात्मप्रकाश विषयोंकर उत्पन्न हुए सुखका तो अभाव ही है, लेकिन अतीन्द्रिय सुख जो निराकुल परमानन्द है, उसका अभाव नहीं है, कर्मजनित जो इन्द्रियादि दस प्राण अर्थात् पांच इन्द्रियां, मन, वचन, काय, आयु, श्वासोच्छ्वास इन दस प्राणोंका भी अभाव है, ज्ञानादि निज प्राणोंका अभाव नहीं है । जोवकी अशुद्धताका अभाव है, शुद्धपनेका अभाव नहीं, यह निश्चयसे जानना ॥ ६ ॥ .
अथोत्तमं सुखं न ददाति यदि मोक्षस्तर्हि सिद्धाः कथं निरन्तरं सेवन्ते तमिति कथयति
उत्तमु सुक्खु ण देइ जइ उत्तमु मुक्खु ण होइ । तो कि सयलु वि कालु जिय सिद्ध वि सेवहिं सोइ ॥७॥ उत्तमं सुखं न ददाति यदि उत्तमः मोक्षो न भवति । ततः किं सकलमपि कालं जीव सिद्धा अपि सेवन्ते तमेव ।।७।।
आगे कहते हैं कि जो मोक्ष उत्तम सुख नहीं दे, तो सिद्ध उसे निरन्तर क्यों सेवन करें ?- (यदि) जो (उत्तमं सुखं) उत्तम अविनाशी सुखको (न ददाति) नहीं देवे, तो (मोक्षः उत्तमः) मोक्ष उत्तम भी (न भवति) नहीं हो सकता, उत्तम सुख देता है, इसीलिये मोक्ष सबसे उत्तम है। जो मोक्ष में परमानन्द नहीं होता (ततः) तो (जीव) हे जीव, (सिद्धा अपि) सिद्धपरमेष्ठी भी (सकलमपि कालं) सदा काल (तमेव) उसी मोक्षको (कि सेवंते) क्यों सेवन करते ? कभी भी न सेवते ।।
भावार्थ-वह मोक्ष अखण्ड सुख देता है, इसीलिये उसे सिद्ध महाराज सेवते हैं, मोक्ष परम आह्लादरूप है, अविनश्वर है, मन और इन्द्रियोंसे रहित है, इसीलिये उसे सदाकाल सिद्ध सेवते हैं, केवलज्ञानादि गुण सहित सिद्ध भगवान् निरन्तर निर्वाण में ही निवास करते हैं, ऐसा निश्चित है । सिद्धोंका सुख दूसरी जगह भो ऐसा कहा है "आत्मोपादान" इत्यादि । इसका अभिप्राय यह है कि इस अध्यात्म-ज्ञानसे सिद्धोंके जो परमसुख हआ है, वह कैसा है कि अपनी अपनी जो उपादान-शक्ति उसीसे उत्पन्न हआ है, परकी सहायतासे नहीं है, स्वयं (आप ही) अतिशयरूप है, सब बाधाओस रहित है, निराबाध है, विस्तीर्ण है, घटती-बढ़तोसे रहित है, विषय-विकारसे रहित है, भेदभावसे रहित है, निर्द्वन्द है, जहांपर वस्तुको अपेक्षा ही नहीं है, अनुपम है, बनन्त है, अपार है, जिसका प्रमाण नहीं सदाकाल शाश्वत है, महा उत्कृष्ट है, अनंत