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परमात्मप्रकाश
[ १०७ नन्दसुखरूप अमृतरसके आस्वादसे विपरीत हैं, इसलिये सुखके करनेवाले नहीं हैं, ऐसा जानना ।। ३ ।।
अथ धर्मार्थकामेभ्यो यद्युत्तमो न भवति मोक्षस्तर्हि तत्त्रयं मुक्त्वा परलोकशब्दवाच्यं मोक्षं किमिति जिना गच्छन्तीति प्रकटयन्ति
जइ जिय उत्तमु होइ णवि एयहं सयलहं सोइ । तो किं तिगिण वि परिहरवि जिण वच्चहिं पर-लोइ ॥४॥ यदि जीव उत्तमो भवति नैव एतेभ्यः सकलेभ्यः स एव ।
ततः किं त्रीण्यपि परिहत्य जिनाः व्रजन्ति परलोके ।।४।। ' आगे धर्म अर्थ काम इन तीनोंसे जो मोक्ष उत्तम नहीं होता तो इन तीनोंको छोड़कर जिनेश्वरदेव मोक्षको क्यों जाते ? ऐसा दिखाते हैं-(जीव) हे जीव, (यदि) जो (एतेभ्यः सकलेभ्यः) इन सबोंसे (सः) मोक्ष (उत्तमः) उत्तम (एव) ही (नैव) नहीं (भवति) होता (ततः) तो (जिनाः) श्रीजिनवरदेव (त्रोण्यपि) धर्म अर्थ काम इन तीनोंको (परिहत्य) छोड़कर (परलोके) मोक्षमें (किं) क्यों (व्रजति) जाते ? इसलिये जाते हैं कि मोक्ष सबसे उत्कृष्ट है ।
भावार्थ-पर अर्थात् उत्कृष्ट मिथ्यात्व रागादि रहित केवलज्ञानादि अनन्त गुण सहित परमात्मा वह पर है, उस परमात्माका लाक अर्थात् अवलोकन वीतराग परमानन्द समरसीभावका अनुभव वह परलोक कहा जाता है, अथवा परमात्माको परमशिव कहते हैं, उसका जो अवलोकन वह शिवलोक है, अथवा परमात्माका ही नाम परमब्रह्म है, उसका लोक वह ब्रह्मलोक है, अथवा उसीका नाम परमविष्णु है, उसका लोक अर्थात् स्थान वह विष्णुलोक है, ये सब मोक्षके नाम हैं, यानि जितने परमात्माके नाम हैं, उनके आगे लोक लगानेसे मोक्षके नाम हो जाते हैं, दूसरा कोई कल्पना किया हुआ शिवलोक, ब्रह्मलोक या विष्णुलोक नहीं है । यहां पर सारांश यह हुआ कि परलोकके नामसे कहा गया परमात्मा ही उपादेय है, ध्यान करने योग्य है, अन्य कोई नहीं ।। ४ ।। . ..
अथ तमेव मोक्षं सुखदायकं दृष्टान्तद्वारेण दृढयति
उत्तमु सुक्खु ण देइ जइ उत्तमु मुक्खु ण होइ । तो किं इच्छहिं बंधणहिं बद्धा पसुय वि. सोइ ।। ५ ।।