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परमात्मप्रकाश
उत्तमं सुखं न ददाति यदि उत्तमो मोक्षो न भवति ।
ततः किं इच्छन्ति बन्धनै बद्धा पशवोऽपि तमेव ॥ ५ ॥
आगे मोक्ष अनंत सुखका देनेवाला है, इसको दृष्टान्तके द्वारा दृढ़ करते हैं( यदि ) जो (मोक्षः) मोक्ष ( उत्तमं सुखं ) उत्तम सुखको ( न ददाति) न देवे तो ( उत्तमः) उत्तम ( न भवति) नहीं होवे और जो मोक्ष उत्तम ही न होवे ( ततः ) तो (बंधनैः बद्धाः ) बन्धनोंसे बन्धे ( पशवोऽपि ) पशु भी ( तमेव) उस मोक्षकी ही (कि इच्छंति) क्यों इच्छा करें ?
भावार्थ- बन्धने के समान कोई दुःख नहीं है, और छूटने के समान कोई सुख नहीं है, बन्धनसे वन्धे जानवर भी छूटना चाहते हैं, और जब वे छूटते हैं, तब सुखी होते हैं । इस सामान्य बंधन के अभाव से ही पशु सुखी होते हैं, तो कर्म - बंधन के अभाव से ज्ञानीजन परमसुखी होवें, इसमें अचम्भा क्या है । इसलिये केवलज्ञानादि अनन्त गुणसे तन्मयी अनन्त सुखका कारण मोक्षही आदरने योग्य है, इस कारण ज्ञानी पुरुष विशेबतासे मोक्षको ही इच्छते हैं ।। ५ ।।
अथ यदि तस्य मोक्षस्याधिकगुणगणो न भवति तर्हि लोको निजमस्तकस्योपरि तं किमर्थं धरतीति निरूपयति
अणु जड़ जगहं वि हिययरु गुण गणु तासु ग होइ । तो तइलोउ वि किं धरइ गिय - सिर- उपरि सोड़ || ६ ||
अन्यदु यदि जगतोऽपि अधिकतर : गुणगणः तस्य न भवति ।
ततः त्रिलोकनि किं धरति निजशिर उपरि तमेव ।। ६ ।।
आगे बतलाते हैं—जो मोक्षमें अधिक गुणोंका समूह नहीं होता, तो मोक्षको तीन लोक अपने मस्तकपर क्यों रखता ? (अन्यद्) फिर (यदि ) जो ( जगतः अपि ) सब लोकसे भी ( अधिकतर : ) बहुत ज्यादः ( गुणगरणः ) गुणोंका समूह ( तस्य ) उस मोक्ष में ( न भवति) नहीं होता, (ततः) तो ( त्रिलोकः अपि ) तीनों ही लोक ( निजशिरसि ) अपने मस्तकके (उपरि ) ऊपर ( तमेव ) उसी मोक्षको ( कि धरति ) क्यों रखते ?
भावार्थ–मोक्ष लोकके शिखर (अग्रभाग) पर है, सो सब लोकोंसे मोक्षमें बहुत ज्यादः गुण हैं, इसीलिये उसको लोक अपने सिरपर रखता है । कोई किसीको