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[ १०३ ] दुःख समान हैं, शत्रु मित्रों का वर्ग समान हैं, प्रशंसा निन्दा समान हैं, पत्थर और सोना समान है, और जीवन मरण जिसके समान हैं, ऐसा समभावका धारण करने बाला मुनि होता है । अर्थात् ऐसे समभावके धारक शान्तचित्त योगीश्वरोंके चित्तमें चिदानन्द देव तिष्ठता है ।। १२३।।
इत्येकत्रिंशत्सत्रैश्चलिकास्थलं गतम् । अथ स्थलसंख्यावाह्यं प्रक्षेपकद्वयं कथ्यतेमणु मिलियउ परमेसरहं परमेसरु वि मणस्स ।
बीहि वि समरसि हवाहं पुज्ज चडावउं कस्स ॥१२३४२॥ . मनः मिलितं परमेश्वरस्य परमेश्वरः अपि मनसः ।
द्वयोरपि समरसीभूतयोः पूजां समारोपयामि कस्य ।।१२३*२।।
इस प्रकार इकतीस दोहा-सूत्रोंका-चूलिका स्थल कहा । चूलिका नाम अंतका है, सो पहले स्थलका अन्त यहां तक हुआ। आगे स्थलकी संख्यासे सिवाय दो प्रक्षेपक दोहा कहते हैं-(मनः) विकल्परूप मन (परमेश्वरस्य मिलितं) भगवान् आत्मारामसे मिल गया तन्मयो हो गया (परमेश्वरः अपि) और परमेश्वर भी (मनसः) मनसे मिल गया तो (द्वयोः अपि) दोनों ही को (समरसीभूतयोः) समरस (आपसमें एकमएक) होनेपर (कस्य) किसकी अब मैं (पूजां समारोपयामि) पूजा करूं । अर्थात् निश्चयनयकर किसीको पूजना, सामग्री चढ़ाना नहीं रहा ।
भावार्थ-जबतक मन भगवानसे नहीं मिला था, तबतक पूजा करता था, और जब मन प्रभुसे मिल गया, तब पूजाका प्रयोजन नहीं है । यद्यपि व्यवहारनयकर गृहस्थ-अवस्थामें विषय-कषायरूप खोटे ध्यानके हटानेके लिये और धर्मके बढ़ानेके लिये पूजा अभिषेक दान आदिका व्यवहार है, तो भी वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें लीन हुए योगीश्वरोंको उस समयमें बाह्य व्यापारके अभाव होनेसे स्वयं ही द्रव्य-पूजाका प्रसंग नहीं आता, भाव-पूजामें ही तन्मय हैं ।।१२३*२।।
जेण णिरंजणि मणु धरिउ विसय-कसायहिं जंतु । मोक्वहं कारणु एत्तडउ अण्णु ण तंतु ण मंतु ॥१२३२३॥ येन निरञ्जने मनः धृतं विषयकषायेषु गच्छत् । मोक्षस्य कारणं एतावदेव अन्यः न तन्त्रं न मन्त्रः ।।१२३*३।।