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[ १०२ ] भावार्थ-पहले दोहेमें जो कहा था कि चित्तकी आकुलताके उपजानेवाले स्त्रीरूपका देखना सेवना चिंतादिकोंसे उत्पन्न हुए रागादितरंगोंके समूह हैं, उनकर रहित निज शुद्धात्मद्रव्यका सम्यक् श्रद्धान स्वाभाविकज्ञान उससे वीतराग परमसुखरूप अमृतरस उस स्वरूप निर्मल नीरसे भरे हए ज्ञानियों के मानस-सरोवर में परमात्मादेवरूपी हंस निरन्तर रहता है । वह आत्मदेव निर्मल गुणोंकी उज्ज्वलताकर हंसके समान है । जैसे हंसोंका निवास-स्थान मानससरोवर है, वैसे ब्रह्मका निवास स्थान ज्ञानियोंका निर्मल चित्त है। ऐसा श्रीयोगीन्द्रदेवका अभिप्राय है ।।१२२।।
उक्तंचदेउ ण देउले णवि सिलए णवि लिप्पइ णवि चित्ति । अखउ णिरंजणु णारगमउ सिउ संठिउ सम-चित्ति ॥१२३।। देवः न देवकुले नैव शिलायां नैव लेप्ये नैव चित्रे। . अक्षयः निरञ्जनः ज्ञानमयः शिवः संस्थितः समचित्ते ।।१२३॥
आगे इसी बातको दृढ करते हैं- (देवः) आत्मदेव (देवकुले) देवालय में (मन्दिरमें) (न) नहीं है, (शिलायां नैव) पाषाणकी प्रतिमामें भी नहीं है, (लेपे नैव) लेपमें भी नहीं है, (चित्रे नैव) चित्रामकी मूर्तिमें भी नहीं है । लेप और चित्रामकी मूर्ति लौकिकजन बनाते हैं, पंडितजन तो धातू पाषाणकी ही प्रतिमा मानते हैं, सो लौकिक दृष्टान्तके लिये दोहामें लेप चित्रामका भी नाम आ गया । वह देव किसी जगह नहीं रहता। वह देव (अक्षयः) अविनाशी है, (निरंजनः) कजिनसे रहित है, (ज्ञानमयः ) केवलज्ञानकर पूर्ण है, (शिवः) ऐसा निज परमात्मा (सचित्ते संस्थितः) समभावमें तिष्ठ रहा है, अर्थात् समभावको परिणत हुए साधुओंके मन में विराज रहा है, अन्य जगह नहीं है ।
भावार्थ-यद्यपि व्यवहारनयकर धर्मकी प्रवृत्ति के लिये स्थापनारूप अरहन्तदेव देवालय में तिष्ठते हैं, धातु पाषाणकी प्रतिमाको देव कहते हैं तो भी निश्चयनयकर शत्रु मित्र सुख दुःख जीवित मरण जिसमें समान हैं, तथा वीतराग सहजानन्दरूप परमात्मतत्त्वका सम्यक श्रद्धान जान चारित्ररूप अभेद रत्नत्रयमें लीन ऐसे ज्ञानियाक सम चित्त में परमात्मा तिष्ठता है । ऐसा ही अन्य जगह भी समचित्तको परिणत हुए मुनियोंका लक्षण कहा है । "समसत्त" इत्यादि । इसका अर्थ ऐसा है कि जिसके गुग्य