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[ १०१ ] स्त्री (वसति) बस रही है (तस्य ) उसके ( ब्रह्म) अपना शुद्धात्मा (नैव) नहीं है, ... अर्थात् उसके शुद्धात्माका विचार नहीं होता, ऐसा हे प्रभाकरभट्ट, तू अपने मनमें (विचारय) विचार कर । बड़े (बत) खेदकी बात है कि (एकस्मिन्) एक (प्रतिकारे) म्यानमें (द्वौ खङ्गो) दो तलवारें (कथं समायातौ) कैसे आ सकती हैं ? कभी नहीं समा सकतीं।
भावार्थ-वीतरागनिर्विकल्पपरमसमाधिकर उत्पन्न हुआ अनाकुलतारूप परम आनन्द अतीन्द्रिय-सुखरूप अमृत है, उसके रोकनेवाले तथा आकुलताको उत्पन्न करने वाले जो स्त्रीरूपके देखनेकी अभिलाषादिसे उत्पन्न हुए हाव (सुख-विकार) भाव अर्थात् चित्तका विकार, विभ्रम अर्थात् मुहका टेढ़ा करना, विलास अर्थात् नेत्रोंके कटाक्ष इन स्वरूप विकल्पजालोंकर, मूछित रजित परिणत चित्तमें ब्रह्मका (निज शुद्धात्माका) रहना कैसे हो सकता है ? जैसे कि एक म्यानमें दो तलवारें कैसे आ सकती हैं ? नहीं आ सकतीं। उसी तरह एक चित्तमें ब्रह्म-विद्या और विषय-विनोद ये दोनों नहीं समा सकते । जहां ब्रह्म-विचार है, वहां विषय-विकार नहीं है, जहां विषय-विकार हैं, वहां ब्रह्म-विचार नहीं है । इन दोनोंमें आपसमें विरोध है । हाव भाव विभ्रम विलास इन चारोंका लक्षण दूसरी जगह भी कहा है । "हावो मुख विकारः" इत्यादि, उसका अर्थ ऊपर कर चुके हैं, इससे दूसरी बार नहीं करा ॥१२१॥
अथ रागादिरहिते निजमनसि परमात्मा निवसतीति दर्शयतिणिय-मणि णिम्मलि णाणियहं णिवसइ देउ अणाइ । हंसा सरवरि लीणु जिम महु एह उ पडिहाइ ॥१२२।। निजमनसि निर्मले ज्ञानिनां निवसति देवः अनादिः । हंसः सरोवरे लीनः यथा मम ईदृशः प्रतिभाति ।।१२२॥
आगे रागादि रहित निज मन में परमात्मा निवास करता है, ऐसा दिखाते - हैं- (ज्ञानिनां) ज्ञानियोंके (निर्मले) रागादि मल रहित (निजमनसि) निज मन में
(अनादिः देवः) अनादि देव आराधने योग्य शुद्धात्मा (निवसति) निवास कर रहा है, (यथा) जैसे (सरोवरे) मानस-सरोवर में (लीनः हंसः) लीन हुआ हंस बसता है । सो हे प्रभाकरभट्ट, (मम) मुझे (एवं) ऐसा (प्रतिभाति) मालूम पड़ता है। ऐसा वचन श्रीयोगीन्द्रदेवने प्रभाकरभट्टसे कहा ।