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________________ 62 / आचार्य कुन्दकुन्द सहस्राब्दियों के अनवरत चिन्तन के बाद भी जैन दार्शनिको मे मतभेद दृष्टिगोचर नही होता । कुन्दकुन्द ने जीव की परिभाषा देते हुए कहा हैजीवो त्ति हवदि चेदा उवयोगविसेसिदो पहु कत्ता । भोत्ता य देहमत्तो न हि मुत्तो कम्मसत्तो ॥ पचास्ति 27 अर्थात् जीव ही आत्मा है, चैतन्यगुणवाला है, ज्ञान है, प्रभु (स्वतन्त्र ) है, (कर्मों का ) कर्ता तथा भोक्ता है, स्वदेहप्रमाण है, अमूर्त तथा कर्मयुक्त है । ममयसार मे कुन्दकुन्द ने इसे और भी स्पष्ट किया है । यथा- अरसमरूवमगध अव्वत्तं चेदणागुणमसद्द | जाण अलिंगग्गहण जीवमणिद्दिट्ठसठाण ॥ समय ० 2 / 11 अर्थात् जो रसरहित, रूपरहित, गन्धरहित, इन्द्रियो द्वारा अगोचर, चेतनागुणयुक्त, शब्दरहित, इन्द्रियो द्वारा अग्राह्य एव निराकार है, उसे जीव जानो । आधुनिक विज्ञान-जगत् ने भी जीवात्मा की खोज का अथक प्रयत्न किया है। उन्होने उसे देखने अथवा पकडने के लिए एक विशेष रूप से निर्मित सयन्त्र का प्रयोग भी किया, किन्तु असफलता ही हाथ लगी । एक वार उन्होने एक पारदर्शी टकी मे जीवित प्राणी को बन्द कर उसे चारों ओर से सील कर दिया । उसमे वह प्राणी तो मर गया किन्तु उसमे से निकले हुए जीव या आत्मा का कोई भी चिह्न कही भी दिखाई नही दिया । कैकेय-नरेश राजा प्रदेशी एव श्रमणकुमार केशी का ऐतिहासिक आख्यान यह कहना कठिन है कि आधुनिक वैज्ञानिको ने प्राचीन प्राकृत जैन साहित्य का अध्ययन किया या नही । यदि किया होता तो बहुत सम्भव है कि वे अपनी शक्ति, सम्य, एव द्रव्य के वहुत कुछ अपव्यय से बच जाते । क्योकि आज से लगभग 2838 वर्ष पूर्व (अर्थात् ई० पू० 849 के आस पास) की एक बहुत ही रोचक घटना का वर्णन रायपसेणियसुत (रा प्रश्नीयसूत्र ) नामक जैनागम मे मिलता है। यह घटना कैक्य देश (जहाँ
SR No.010070
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Vidyavati Jain
PublisherPrachya Bharti Prakashan
Publication Year1989
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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