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________________ आचार्य कुन्दकुन्द /41 णवि देही वदिज्जइ णविय कुलो णविय जाइ संजुत्तो। को वदइ गुणहीणो गहु सवणो णेव सावओ होइ ॥दसण० 27 ___ अर्थात् न तो शरीर की वन्दना की जाती है और न कुल की। उच्च जाति की भी वन्दना नहीं की जाती । गुणहीन की वन्दना तो कौन करेगा? क्योकि न तो गुणो के विना मुनि हो सकता है और न ही श्रावक । पुन. कुन्दकुन्द कहते हैं सव्वे विय परिहीणा स्वविरुवा वि वदिदसुवया वि। सोल जेसु सुसील सुजीविद माणुसं तेसि ॥ सील० 18 अर्थात् भले ही कोई हीन जाति का हो, सौन्दर्य-विहीन कुरूप हो, विकलाग हो, झुर्रियो से युक्त वृद्धावस्था को भी प्राप्त क्यो न हो, इन सभी विरूपो के होने पर भी यदि वह उत्तम शील का धारक हो तथा यदि उसके मानवीय गुण जीवित हो तो उस विरूप का भी मनुष्य-जन्म श्रेष्ठ है । ____ आत्मगुण के विकास का अर्थ कुन्दकुन्द ने यही माना है कि जिससे व्यक्ति अपने परिवार, समाज एव देश का कल्याण कर सके। इन सबके लिए व्यक्ति का सच्चरित्र होना अत्यावश्यक है। यह गुण सार्वकालिक एव सार्वभौमिक सत्य है । सम्राट अशोक तब तक प्रियदर्शी न बन सका और तव तक भारत-माता के गले का हार न बन सका, जब तक उसने कलिंगयुद्ध के अपराध के प्रायश्चित मे अपनी तलवार तोडकर नहीं फेंक दी और अहिंसक जीवन व्यतीत नही करने लगा। मोहनदास करमचन्द गाधी तब तक महात्मा नहीं बन सके जब तक उन्होने महर्षि जनक, तीर्थकर महावीर एव गौतमबुद्ध की भूमि का स्पर्श कर अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य एव अपरिग्रह को अपने जीवन मे नही उतार लिया। जीवन के सन्तुलन एव समरसता के लिए ज्ञान एव साधना अथवा तप के समन्वय पर कुन्दकुन्द ने विशेष बल दिया। क्योकि एक के बिना दूसरा अन्धा व लगडा है । पारस्परिक सयमन के लिए एक को दूसरे की महती आवश्यकता है । कुन्दकुन्द ने स्पष्ट कहा है तवरहिय ज णाण णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्यो। तम्हा जाणतवेण संजुत्तो लहइ णि व्वाणं ॥ मोक्ख 0 59
SR No.010070
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Vidyavati Jain
PublisherPrachya Bharti Prakashan
Publication Year1989
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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