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________________ 40/ आचार्य कुन्दकुन्द विकास शौरसेनी-प्राकृत से हुआ है । अत निष्पक्ष दृष्टि से देखा जाय तो कुन्दकुन्द ही ऐसे प्रथम आचार्य है, जिनके साहित्य ने आधुनिक प्रजभाषा एव साहित्य को न केवल भावभूमि प्रदान की, अपितु उसके बहुआयामी 1) अध्ययन के लिए मूल-स्रोत भी प्रदान किए। इस दृष्टि से कुन्दकुन्द को हिन्दी-साहित्य, विशेषतया ब्रजभाषा एव साहित्य रूपी भव्य प्रासाद की नीव का ठोस पत्थर माना जाय, तो अत्युक्ति न होगी। ___ सर्वोदयी सस्कृति का प्रचार-कुन्दकुन्द की दूसरी विशेषता है उनके द्वारा सर्वोदयी सस्कृति का प्रचार । भारतीय-सस्कृति त्याग की सस्कृति है, भोग की नही । कुन्दकुन्द ने उसे आपादमस्तक समझा एव सराहा था। वे सिद्धान्तो के प्रदर्शन मे नही, बल्कि उन्हे जीवन मे उतारने की आवश्यकता पर बल देते थे। उनके जो भी आदर्श थे, उनका सर्वप्रथम प्रयोग उन्होंने अपने जीवन पर किया और जब वे उसमे खरे उतरते थे, तभी उन्हे सार्वजनीन रूप देते थे। उनके 'पाहुडसाहित्य' का यदि गम्भीर विश्लेपण किया जाय, तो उससे यह स्पष्ट विदित हो जायगा कि उनके अहिंसक एव अपरिग्रह सम्बन्धी सिद्धान्त केवल मानव-समाज तक ही सीमित न थे, अपितु समस्त प्राणी-जगत् पर भी लागू होते थे। 'जिओ और जीने दो' के सिद्धान्त का उन्होने आजीवन प्रचार किया। __आचार्य कुन्दकुन्द की सर्वोदयी-सस्कृति का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। वह वस्तुतः हृदय-परिवर्तन एव आत्मगुणो के विकास की संस्कृति है। उसका मूल आधार मंत्री, प्रमोद, कारुण्य एव मध्यस्थ-भावना है। रुपयोपैसो, सोना-चांदी, वैभव, पद-प्रभाव आदि के बल पर अथवा भौतिक-शक्ति के बल पर क्या आत्मगुणो का विकास किया जा सकता है ? क्या शारीरिक सौन्दर्य से तथा उच्च-कुल एव जाति में जन्म ले लेने मात्र से ही सद्गुणो का आविर्भाव हो जाता है ? सरलता, निश्छलता, दयालुता, परदुखकातरता, श्रद्धा एव सम्मान की भावना क्या दूकानो पर विकती है, जो खरीदी जा मके? नहीं । सदगुण तो यथार्थत श्रेष्ठ गुणीजनो के ससर्ग से एव वीतरागवाणी के अध्ययन से ही आ सकते हैं। कुन्दकुन्द ने कितना सुन्दर कहा
SR No.010070
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Vidyavati Jain
PublisherPrachya Bharti Prakashan
Publication Year1989
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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