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________________ आचार्य कुन्दकुन्द /17 आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने साहित्य मे जब आत्म-परिचय ही प्रस्तुत नहीं किया, तव उनकी किसी चमत्कारी घटना के उल्लेख का प्रश्न ही नही उठता, किन्तु उनके परवर्ती कुछ लेखको ने उनके उल्लेख किए हैं। उनके अनुसार____ आचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी कचन-सी काया को एकाग्रचित्तपूर्वक दुर्गम अटवियो, शून्य-गुफागृहो, सघन-वनो, तरुकोटरो, गिरिशिखरो, पर्वतकन्दराओ तथा श्मशान-भूमियो मे रहते हुए कठोर तपस्या मे लगा दिया। 'फलस्वरूप उन्हे चारण-ऋद्धि की प्राप्ति हो गई और उसके प्रभाव में वे पृथ्वी से चार अगुल-प्रमाण ऊपर अन्नरिक्ष मे चलने लगे। किन्तु उन्होने इस ऋद्धि मे किसी भी प्रकार की अपनी भौतिक महत्त्वाकाक्षा को पूर्ण नही किया। ज्ञान-पिपासा को तृप्ति हेतु पूर्व-विदेह की यात्रा एक बार की घटना है कि वे स्वाध्याय कर रहे थे, तभी जिनागमो के कुछ तथ्य उन्हें अस्पष्ट रह गये और उनके समाधान के लिए उन्होंने सीमन्धर स्वामी का स्मरण किया। सीमन्धर स्वामी उस समय पूर्व-विदेह-क्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी मे अपने समवसरण में विराजमान थे। उनके ज्ञान मे आचार्य कुन्दकुन्द की समस्या झलक उठी और उसी समय उनकी दिव्यध्वनि मे 'सद्धर्मवृद्धिरस्तु' यह वाक्य निकला। इसे सुनकर किसी ने सीमन्धर स्वामी से यह प्रश्न किया कि "आपने यह आशीर्वाद किसके लिए दिया है ?" तब उन्हे उत्तर मिला कि-"मरतक्षेत्र मे मुनि कुन्दकुन्द के मन मे कुछ शकाएं उत्पन्न हो रही हैं । उन्होने मुझे नमस्कार किया है । अत. उन्ही के लिए हमारा यह आशीर्वाद गया है।" 1 पञ्चास्तिकाय की जयसेनकृत टीका का प्रारम्भ तथा देवसेनकृत दर्शनसार। 2 जैन हितैषी 10/6-7/383-85
SR No.010070
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Vidyavati Jain
PublisherPrachya Bharti Prakashan
Publication Year1989
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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