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________________ आचार्य कुंदकुंददेव पंचास्तिकाय - तात्पर्यव्याख्यानं कथ्यते । अर्थ :- “ श्री कुमारनंदिसिद्धान्तदेव के शिष्य प्रसिद्धकथान्याय से पूर्व विदेह क्षेत्र जाकर वीतराग सर्वज्ञ श्री सीमन्धर स्वामी तीर्थंकर परमदेव के दर्शन कर उनके मुखकमल से निसृत दिव्यध्वनि के श्रवण से शुद्धात्मादि तत्वों के साथ पदार्थों की अवधारण कर समागत श्री पद्मनंदी आदि हैं अपर नाम जिनके उन श्री कुन्दकुन्दचार्यदेव के द्वारा अन्तस्तत्व और बहितत्व को मुख्य और गौण प्रतिपत्ति के लिए अथवा शिवकुमार महाराज आदि संक्षेप रुचिवाले शिष्यों को समझाने के लिए रचित पंचास्तिकाय प्राभृत शास्त्र में अधिकारों के अनुसार यथाक्रम से तात्पर्यार्थ का व्याख्यान किया जाता है । प्राभृतशास्त्रे ६३ यथाक्रमेणा धिकारशुद्धिपूर्वकं षट्प्राभृत के संस्कृत टीकाकार श्री श्रुतसागरसूरि अपनी टीका के अन्त में लिखते हैं : "" “श्रीपद्मनन्दिकुन्दकुन्दाचार्यवक्रग्रीवाचार्यैलाचार्यगृद्धपिच्छा चार्य नाम पंचक विरा जितेन चतुरंगुलाकाशगमनर्द्विना पूर्वविदेहपुण्डरीक्णिीनगरवन्दितसीमन्धरा परनामस्वयंप्रभजिनेनतच्छुतज्ञान संबोधितभरतवर्षभव्यजीवेन श्रीजिनचन्द्रसूरिभट्टारकपट्टाभरणभूतेन कलिकालसर्वज्ञेन विरचिते प्राभृत ग्रन्थे............... अर्थ :- श्री पद्मनंदी कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, लाचार्य एवं गृद्धपिच्छाचार्य पंचनामधारी, जमीन से चार अंगुल ऊपर आकाश में चलने की ॠद्धि के धारी, पूर्वविदेह की पुण्डरीकिणीनगरी में विराजित सीमन्धर अपरनाम स्वयंप्रभ तीर्थकर से प्राप्त ज्ञान से
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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