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________________ 'आचार्य कुंदकुंददेव का शिथिलाचार सहित सुलभ मार्ग सामान्यजनों को सुहावना लगने लगा; यह कोई आश्चर्य की बात भी नहीं है । ६ सत्य, सनातन वीतराग जैनधर्म और परम पवित्र, तथा निर्दोष साधु के आचार पर प्रबल आघात हो रहा था, यह आचार्य कुन्दकुन्द को कैसे स्वीकृत हो सकता था ? यह विकृति दूर हो-ऐसी धर्मभावना दिन-प्रतिदिन आचार्य श्री के मन में बलवान होती जा रही थी। ऐसे समय में गुरु श्रुतकेवली भद्रबाहु का स्वर्गवास हो गया । अतः आचार्य कुन्दकुन्द का उत्तरदायित्व और भी बढ़ गया । भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित मूल सत्य वस्तुस्वरूप लोगों के गले उतारना एवं उसे लिपिबद्ध करना और निर्ग्रन्थ साधु परम्परा को यथावस्थित सुरक्षित रखना एवं भविष्य के लिए बढ़ाते रहना इन बातों की अनिवार्य आवश्यकता आचार्य को तीव्रता से महसूस हुई । अतः जनजागृति और धर्मप्रचार के लिए पूर्ण भारत में विहार किया । मूल अचेल - निर्ग्रन्थ परम्परा को जनमानस में सर्वोपरि स्थान रहे - इस भावना से सत्शास्त्रों की रचना भी की । सचेल / श्वेताम्बर परम्परा का खुलेआम - स्पष्ट विरोध किया । समग्र अष्टपाहुड़ ग्रंथ एक दृष्टि से आचार संहिता ही है। इस ग्रंथ का विषय ही मुनिराज का आचार-विचार, विहार, चिंतन एवं स्वरूप ही है । इसी कारण उस समय अष्टपाहुड़ ग्रंथ सचेल परम्परा के लिए समस्या बन गया था । आचार्य कुन्दकुन्द देव की महिमा प्राचीनता और अर्वाचीनता पर सिद्ध होने लायक कृत्रिम बनावटी और परोपजीवी नहीं है। उनकी महिमा उनके प्रतिपादित परम सत्य व सर्वथा निराबाध वस्तुस्वरूप
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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