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आचार्य कुंदकुंददेव
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उसी प्रकार इस ही सूत्रपाहुड़ ग्रंथ के गाथा क्रमांक १८ में कहा है- "नग्न-दिगम्बर अवस्था अर्थात् यथाजात रूप अवस्था धारण करने वाले मुनि यदि तिलतुषमात्र भी परिग्रह ग्रहण करेंगे तो वे निगोद में जायेंगे ।” १
इस प्रकार की गाथाओं की रचना का कारण धार्मिक क्षेत्र में उत्पन्न मतभेद और साधु समाज में बढ़ता हुआ शिथिलाचार ही होना चाहिए - ऐसा लगता है ।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी ने “उत्तर भारत में बारह वर्ष का अकाल रहेगा" ऐसा निमित्तज्ञान से जाना था । अनादिकाल से अखण्ड चली आ रही पवित्र दिगम्बर साधु परम्परा के संरक्षण के लिए सनातन सत्य, वीतराग जैनधर्म की सुरक्षा के लिए अपने संघ के दिगम्बर साधु शिष्यों के साथ उन्होंने दक्षिण भारत में पदार्पण किया । किन्तु कुछ दिगम्बर मुनि आचार्य भद्रबाहु के साथ दक्षिण में नहीं आये, उत्तर भारत में ही रहे । उत्तर भारत में भयानक अकाल के कारण दिगम्बर साधु अवस्था का निर्वाह होना कठिन हो गया । अतः साधु अचेल अवस्था का त्याग कर सचेलक बन गए - श्वेत वस्त्रों को अंगीकार करने लगे । अकाल समाप्ति के बाद स्वीकृत वस्त्र व अन्य शिथिलाचार का त्याग नहीं किया । उल्टा शिथिलाचार को ही धर्म का स्वरूप प्राप्त हो-ऐसा प्रचार प्रारंभ किया । इसके लिए प्राचीन द्वादशांग के नाम पर कल्पित शास्त्रों की रचना की गई। मोक्षप्राप्ति
१. जहजायरूवसरिसो तिलनुसमित्तं ण गिहदि हत्थेसु । जइ इ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदम् ॥