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________________ आचार्य कुंदकुंददेव प्रतिष्ठित महानुभावों ने मुनिसंघ को रुकने की प्रार्थना करने हेतु पहाड़ पर चढ़ना प्रारंभ किया । संघस्थ मुनीश्वरों की सहज दृष्टि पहाड़ चढ़नेवाले जनसमूह की ओर गयी और उनके मन में विचार आया- जैसे राजा शिवस्कन्धवर्मा ने अकस्मात् दीक्षा लेकर सबको सुखद आश्चर्य में डाल दिया, वैसे ही आश्चर्यकारक नया क्या होनेवाला है ?" ७७ कुछ क्षण के बाद वह जन-समुदाय मुनिसंघ के निकट आ गया। आचार्यवर्य कभी विश्व-स्वरूप पर चिन्तन करते थे, कभी भावनालोक में विचरते थे तो कभी शून्य व अनिमेष दृष्टि से दूर पर्यंत देर तक देखते रहते थे। उनका मन सुपरिचित क्षेत्र से अत्यंत दूर साक्षात् केवली दर्शन के लिए उत्कंठित होता रहता था। " पर छठवें गुणस्थानवर्ती प्रमत्तसंयत साधु औदारिक शरीर के साथ पंचमकाल में विदेहक्षेत्र में कैसे जा सकेगा ?" ऐसे विचार के तत्काल बाद ही दूसरा विचार यह भी आता था कि काल द्रव्य तो परमाणु मात्र है, जड़ है। अज्ञानी और पुरुषार्थहीन लोग ही कालादि परद्रव्य के ऊपर अपनी पुरुषार्थहीनता का आरोप लगाते हैं। ऐसा विचार योग्य नहीं । असंयम के परिहारपूर्वक चारण सिद्धि के माध्यम से वहां जाना संभव है । इसी बीच जनसमुदाय ने आकर मुनिसंघ की भक्तिभाव से वंदना करके प्रार्थना की मुद्रा में आशागर्भित दृष्टि से आचार्यदेव के मुखकमल को निहारा । तद विशिष्ट चिन्तन में निनग्न आचार्य महाराज ने ध्यान टूटने पर प्रश्नभरी दृष्टि से श्रावक समूह और मुनिसंघ की ओर दृष्टि डाली । आचार्यश्री के भाव को समझकर
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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