SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य कुंदकुंददेव से उदित बाल-भास्कर के समान मनोहर होते हुए भी छोटा लगता था । आचार्यश्री ने पहले अपने मुनिसंघ पर और बाद में राजा पर अपनी कृपादृष्टि डाली । मानों सबको मौन आशीर्वाद ही दिया हो। तदनंतर सामने दूर तक शून्यदृष्टि से देखते रहे । आचार्य महाराज के मूक संकेतानुसार एक मुनीश्वर ने राजा से पूछा राजन् | “आप पोन्नूर ग्राम से ही आये हैं न ?" “हाँ गुरुदेव ! कल रात को हेमग्राम में ही मुकाम था-रुकना पड़ा । हेगड़ेजी (श्रेष्ठ व्यक्ति) का आग्रह रहा । नहीं, नहीं, हमारे पाप का उदय ! ऐसी ही होनहार थी । कल ही पर्वत चढ़कर आपके दर्शन करने के भाव थे । परन्तु-सूर्यास्त होने से ..........." इस प्रकार अपने को अपराधी मानते हुआ राजा ने सखेद कहा । "आज आचार्य का विहार होगा यह बात आप जानते ही होंगे" इस वाक्य को सुनते ही शिवकुमार के हृदय को झटका-सा लगा | कुछ बोले नहीं, उस राजा के पास बोलने लायक था भी क्या? क्योंकि वह जानते ही थे कि चातुर्मास समाप्त होने पर संघ का विहार क्रमप्राप्त था । तथापि रागवश राजा सोचने लगे इस मलयदेश से धर्म ही के निकल जाने पर यहाँ क्या शेष रहेगा ? आचार्य का ससंघ विहार होना अर्थात् धर्म का निर्गमन ही तो है। धर्मात्मा के जाने पर यहाँ क्या शेष रहेगा? धन-वैभव, राज्य-ऐश्वर्य सब धर्म के अभाव में निरर्थक है । व्यर्थ है । साधु अर्थात् साक्षात् धर्ममूर्ति से ही धरा सुशोभित होती है। अश्रुपूरित नयनों से राजा ने आचार्य श्री की ओर निहारा । आचार्य श्री ने भी धर्मवात्सल्य मुद्रा से राजा को देखा । उसी समय
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy