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आचार्य कुंदकुंददेव इस प्रकार मुनिसंघ तिरुक्कुरल का महत्व अपने मन ही मन में सोच रहा था, इसी बीच में "राजाधिराज, मलयदेशवल्लम, पल्लवकुल गगनचन्द्र, कुन्दकुन्दपाद पोपजीवी, सत्यप्रिय श्री शिवस्कन्धवर्मा' महाराज पराकु -जय पराकु ।"
ऐसी आवाज नीलगिरी पर्वत के बीहड़ वन में गूंज उठी और पोन्नूर पर्वत-शिखर से टकराने पर प्रतिध्वनित हुई । यह आवाज शिवस्कंधवर्मा राजा के आगमन की सूचना दे रही थी।
प्रभातकाल में आचार्यदेव के सान्निध्य में रहनेवाले महामुनिराज दशभक्ति का पाठ कर रहे थे
वीसं तु जिणवरिंदा, अमरासुरवंदिदा धुदकिलेसा ।
सम्मेदे गिरिसिहरे,णिव्याणगया णमो तेसिं ॥ इस गाथा का चौथा चरण णिव्वाणगया णमो तेसिं । उच्चारण करते-करते मुनिसंघ के मनः चक्षु के सामने सम्मेद शिखर से निर्वाण प्राप्त वीस तीर्थकरों का दिव्य-भव्यचरित्र साकार हो जाता था और तत्काल ही सर्व मुनिराज नतमस्तक होते थे । सिद्धक्षेत्र का वह विशिष्ट, शांत, पवित्र प्रदेश उनके मन में रेखांकित सा हो जाता
था।
___ उसीसमय हेमग्रान से आये हुए शिवस्कन्धर्ना अपरनाम शिवकुमार राजा ने अपने परिवार के साथ आकर आचार्य के चरण कमलों की वंदना की । आचार्य श्री के सानिध्य में वह राजा पूर्वांचल
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१. प्रो. ए. चक्रपती पल्लव दंश के शिवकन्या रागकोटीका निर्दिष्ट
शिवकुमार मानकर उसका समय ई. स. पूर्व सदी मानते हैं।