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________________ ५६ आचार्य कुंदकुंददेव मैंने अनादिकाल से अनेक जीवों को माता-पिता बनाकर उनको रुलाया, कष्ट दिया और उनके माध्यम से मानो भिखारी वृत्ति से परपदार्थों का दास बनता रहा । जन्म-मरणादि दुःखों से संत्रस्त होता रहा । यह प्राप्त दुःख-परम्परा मेरे अज्ञान का ही फल है। इस दुःख की जिम्मेदारी और किसी की नहीं। मेरे अज्ञान को मुझे स्वयमेव छोड़ना होगा; यही सुखी होने का तथा आत्महित का एकमात्र उपाय है। अनंत सिद्धों ने भी इसी मार्ग का अवलम्बन लिया था। कोई भी माता-पिता अपने पुत्र को तपोवन में हँसते-हँसते नहीं भेजते; तथापि ये मेरे माता-पिता आदर्श हैं । मेरे वास्तविक तथा शाश्वत हित के इच्छुक हैं। मेरे तपोवन में जाने से इनको तात्कालिक दुश्ख तो होगा लेकिन इस प्रकार विचारपूर्वक निर्णय करके ग्यारहवें वर्ष में पदार्पण करनेवाले पद्मप्रभ ने मुनिपद में पदार्पण करने का विचार माता-पिताजी के सामने दृढ़तापूर्वक रखा। पुत्र के विचारों को सुनते ही माता-पिता के मन में भयमद धमा लगा। यह बालक इतनी छोटी आयु में ही ऐसा अतिकठोर निर्णय लेगायह उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था । अति दीर्घकाल के बाद पुत्रप्राप्ति की अभिलाषा पूर्ण हुई थी। उसका वियोग सहन करने के लिए उनका मन तैयार नहीं हुआ | माता शान्तला ने अति करुण स्वर में भयभीत होते हुए कहा : "प्रिय पुत्र ! इस बाल्यावस्था अल्पवय में किसी भी तीर्थकर महापुरुष ने संन्यास धारण नहीं किया।"
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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