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________________ आचार्य कुंदकुंददेव जितेन्द्रियस्त्यज मान-मुद्रां। शान्तालसावाक्यमुपासि पुत्र ॥ २ ॥ शान्तोऽसि दान्तोऽसि विनाशहीन । सिद्धस्वरूपोऽसि कलंकमुक्तः ॥ ज्योतिस्वरूपोऽसि विमुंच मायां शान्तालसावाक्यमुपासि पुत्र ॥ ३ ॥ कोमल-निर्मल बाल मन के ऊपर सर्वोत्तम संस्कार डालने की इच्छुक माता के इस प्रकार के कर्णमधुर एवं संबोधनस्वरूप गीत सुनकर वह शिशु कैसे सो सकता था? सो जाने वाले शिशु को इस प्रकार के अपूर्व-अलौकिक संस्कार डालने के भाव भी किसी को कैसे आ सकते थे ? प्रत्येक जीव के भवितव्यानुसार उसे अन्य जीवों का संयोग स्वयमेव मिलता है। भले इष्ट संयोग मिलाने का जीव कितना भी प्रयास करे । एवं उस जीव के भवितव्यानुसार ही संयोग में आनेवाले जीवों को संकल्प-विकल्प होते हैं। माता शान्तला की मधुर लोरियाँ सुनकर वह शिशु आँखें बंद करके केवली प्रणीत तत्व का मनन-चिन्तन करते हुए गंभीर हो जाता २. तुम ज्ञान-दृष्टा और परमात्मस्वरूप हो, अखण्डरूप और गुणों के आलय-निवास स्थान हो, जितेन्द्रिय हो और मानादि सम्पूर्ण कषायों की मुद्रा (अवस्था) का त्याग करो-ऐसे शान्तला माता के वचनों का. तुम अनुसरण करो। ३. हे पुत्र ! तुंम शांत, आत्म संयमित,अविनाशी, सिद्धस्वरूप, सर्व प्रकार • के कलंक (मलदोषादि) से रहित और ज्योति स्वरूप हो; संसार की माया को त्याग कर शान्तला माता के वचनों को ग्रहण करो।
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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