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________________ आचार्य कुंदकुंददेव शुक्ल पंचमी के दिन जन्मा हुआ बालक दूज के चन्द्रमा के समान प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त हो रहा था । पद्मप्रभ तीन माह का हो गया था । यद्यपि उसकी सेवा-सुश्रूषा, संवर्धन के लिए अनेक धाय माताओं की व्यवस्था की गयी थी । तथापि माँ शान्तला उसकी व्यवस्था में सदैव सावधान रहती थी। क्योंकि माता को अपने संतान की व्यवस्था में स्वाभाविक रस होता है | संसार के स्वरूप और संसार परिभ्रमण के कारण से सुपरिचित माता शान्तलादेवी अपने पुत्र को सुसंस्कारित करने के लिए सदा जागृत रहती थी । शिशु को पालने में सुलाते समय सुकोमल मन आध्यात्मिक विचार से प्रभावित हो, इस भव्य विचार से खास अलौकिक लोरियाँ गाती थीं। प्रथम लोरि शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि । संसार मायापरिवर्जितोऽसि ॥ शरीरभिन्नस्त्यज सर्वचेष्टां। शान्तालसावाक्यमुपासि पुत्र ॥ १॥ ज्ञाताऽसि दृष्टाऽसि परमात्मरूपो । अखण्डरूपोऽसि गुणालयोऽसि ॥ १. हे पुत्र ! तुम शुद्ध-बुद्धनिरंजन हो, संसार की माया से रहित हो, शरीर से भिन्न हो; अतः अन्य सद चेष्टाओं को छोड़ो और शान्तला के वचनों को धारण करो।
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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