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________________ आचार्य कुंदकुंददेव वस्तुयें दे नहीं सकता, कोई वस्तु जीव को सुख-दुःख दाता है ही नहीं । अनुकूलता-प्रतिकूलता तो पूर्वकृत पुण्य-पाप कर्मोदय का कार्य है। ऐसा वस्तुस्वरूप का उन्हें यथार्थ तथा निर्मल ज्ञान था तथापि पुत्र का अभाव उन्हें अन्दर ही अन्दर शल्य की तरह खटकता था । ३४ कालचक्र अपने स्वभाव के अनुसार गतिमान था ही । उसे कौन और कैसे रोकेगा ? और काल रुकेगा भी कैसे ? सेठ गुणकीर्ति और सेठानी शांतला तत्वचिन्तनपूर्वक पूर्व-पुण्योदयानुसार अपना जीवन यापन करते थे । इसी बीच पेनगोंडा से एक समाचार आया “फागुन की अष्टानिका महापर्व में पूजा, महोत्सव के साथ करने का निर्णय किया है - आप दोनों इस धर्म कार्य में जरूर आवें । प्रवचन, तत्वचर्चा तथा भक्तिआदि का लाभ लेवें । प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे अवसर का लाभ लेना चाहिए" इस प्रकार का समाचार था । समाचार जानकर गुणकीर्ति सेठ को विशेष आनन्द हुआ | "हम उचित समय पर पेनगोंडे पहुँचेगे"- ऐसा संदेश पत्रवाहक के द्वारा भेज दिया । और निश्चित समय पर पेनगोंडे पहुँच गये । जिस प्रकार स्वर्ग के देव नन्दीश्वर द्वीप के अकृत्रिम चैत्यालयों की अष्टानिका पर्व में पूजा करते हैं, उसीप्रकार गुणकीर्ति और शान्तला ने पेनगोंडे के पच्चे श्री पार्श्वनाथ भगवान की आठ दिन में महामह नामक पूजा की । अष्टानिका पर्व में ही योगायोग से आचार्य श्री जिनचन्द्र से अध्यात्म विषय सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । इसकारण दोनों को मानसिक समाधान तो प्राप्त हुआ ही साथ ही तत्वदृष्टि अधिक निर्मल व दृढ़ बन गयी । पर्वोपरान्त चतुर्विध संघ को आहारदान एवं शास्त्रदान देकर संतृप्त मन से वे घर लौटे ।
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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