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________________ आचार्य कुंदकुंददेव संस्थाओं की स्थापना की गई थी। इन संस्थाओं के कारण दक्षिण भारत में तत्वप्रचार का कार्य विशेष हो रहा था । अत: ई. सं. पूर्व तीसरी शताब्दी में जैनधर्म दक्षिण भारत में विशेष उन्नत अवस्था को पहुँच चुका था । अनेक दिगम्बर महामुनीश्वर भी सर्वत्र विहार करके वस्तुधर्म-सत्य सनातन, वीतराग जैनधर्म का उपदेश करते थे। और स्वयं साक्षात् जीवंत सत्य-धर्म स्वरूप समाज के सामने विचरण करते थे। ___ कोण्डकुन्दपुर जैनों का प्रमुख केन्द्र था । यहाँ पेनगोंडा संघ के मुनिराजों का विहार पुनः पुनः होता था एवं मुनिश्वरों के निमित्त से तत्वचर्चा, धर्मोपदेश एंव पण्डितों के प्रवचन भी होते रहते थे। __ नगरसेठ गुणकीर्ति मुनियों की सेवा-सुश्रुषा में अत्यधिक रुचि लेते थे। उनकी धर्मपत्नी श्रीमती शान्तला भी पति के समान धर्मश्रद्धालु नारीरत्न थीं । पूर्व पुण्योदय के कारण उनको किसी भी प्रकार के भौतिक वैभव की कमी नहीं थी । रूप-लावण्य, यौवन, कीर्ति और संपदा सभी से सुसम्पन्न होने पर भी उन्हें अपने वंश के उत्तराधिकारी पुत्ररत्न का अभाव खटकता था और यह अभाव दोनों को भस्मावृत अंगारे के समान सतत जलाता रहता था। गुरूमुख से संसार-स्वरूप का वर्णन सुनकर कुछ क्षण के लिए अपना दुःख भूल जाते थे, परन्तु दूसरे ही क्षण पुत्र का अभाव उन्हें पीड़ा देता था। ऐसा होने पर भी पुत्र-प्राप्ति के लिए कुदेवादि की शरण में तो गए ही नहीं, लेकिन ऐसा अज्ञानजन्य अन्यथा उपाय का विचार भी उनके मन में नहीं आया । फिर किसी से प्रार्थना करना तो दूर की बात है। वे दोनों पति-पत्नी वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशी सच्चे देव के स्वरूप को निर्णयपूर्वक जानते थे। कोई किसी को अनुकूल-प्रतिकूल . . . ..
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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