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________________ आचार्य कुंदकुंद्रदेव १३५ तिरुक्कुरल प्रोग्एकएक चक्रवर्ती ने अनेकानेक प्रकीर से सूक्ष्मारी जिसे खोज करने के बाद"तिरुक्कुरल आचार्य कुन्दकुन्द्र की रचना मानी है । और यह मतां अनुकरणीय श्री है इसका रचनाकाल, निरूपित विषय में तयक्त की गयी भावनायें आदि के सूक्ष्म परिशीलन के बाद हमारे लिए भीतिरक्कुरुलभाचार्य की ही कृति मानना अनिवार्य है कि कि कार्ड इसमें दस इसी पद्यों से सहित १३ अधिकार हैं साहले धर्म भाग में दूसरे असें तीसरे काम मात्र २ अधिकार हैं। कुल मिलाकर - १३३प्रय हैं यह प्रत्यकुरल नामकृछन्द में लिखा गया है । इसमें आये हुए कुरल मन्दिर अत्युत्तम है। अइक ग्रन्थ का नाम भी "कुला : की का- इसमें अर्थ की गहराई पदार्थ विस्तार और भावों की उत्कृष्टता अद्वितीय है कि आलेखक इसके सम्बनध कहा है किंकडु तोलेत्तर कडप्पु गदिटक्कुरुगन्तलि फुरली अर्थात् राईको अदीर से खोखला करके उसमें सप्त सागर भरने के समाप्त सरल पद्यों में भाव पंच भर दिया है कुरल के सभी वाक्य इस बात का समर्थन करते हैं। तमिल भाषा में अत्यन्त मसिद्धः सहायथन्तमिल जनों की नीवि और नागरिकता के निरूपण में अद्वितीय भक्तिसंगहाः a DIE प्राणी ই भिजि संस्कृत टीकाकार अमाचन्द्रदेव ने अपनी टीका में संस्कृतार्वा वक्तयः पूज्यपादस्वामिकृताः प्राकृतास्तु कुकुन्द्रचार्यकृता, ऐसा कहा है। दोनों भक्तियों पर प्रभाचन्द्राचार्य की टीकाएँ हैं । आचार्य कुन्दकुन्ददेव । रचित- आठ भक्तियाँ हैं र
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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