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माप्ति निज-परमात्मतत्व के आश्चय से होती है। साम्यग्दर्शन(मोधष्ठास) से लेकर सिद्ध दशासर्यत की सभी भूमिकायें, इसमें समाहित हैं। fo मथार्थ भाभासनताहितनिटापरमात्मतत्व का जो जघन्य
आशय है, वह सादर्शनाई जा यह आश्रया सध्यम तथा उम अवस्था को प्राप्त होता है जो देशचारित्र और मकलचारित्र आदि अवस्थायें प्रगट होती है। पूर्ण आश्रय लेने से केवलज्ञान और सिद्धत्व की प्लाप्ति होकर के जीव कृतकृत्य हो जाता है। SamaE IP इसप्रकार निन्छ । परमात्मतत्व का आतंय, ही सम्यग्दर्शन, प्रत्याख्यान, आलोचना, संयम, तप. सवर, निर्जरा, धर्म शुक्लध्यान हि त्रागारागार
आदि है । अतएव..निज परमात्मतत्वं का आश्रय लेकर शुद्ध रत्नत्रय PALI का प्राप्त करना चाहिए । निज परमात्मतत्व के आश्रय स उत्पन्न
गरज TT THREE जाने, कवलदेशन, कवली की इच्छा रहितता आदि विषयों का संक्षिप्त किन्तु अदभुत व या
amit अष्टपाहणजह () नानिकी जिनमें
दिसणपाई प्राइसमा इद गाँधा सम्यग्दर्शन के स्वरूप एवं महत्व का वर्णन किया गया है सम्यग्दर्शन रहितः पुरुष चाहे मुनिलिंगधारी क्यों न हो परतावन्दनीय नहीं हैंसम्यग्दर्शन से रहित पुरुष को लाखों करोडों वर्षों तक तप करने पर भी बोधि (रत्नत्रय) की प्राप्ति नहीं होती नि-EI ORY चारित्रपाडाईसमें गाथाओं के द्वारा चारित्र का वर्णन किया गया हारिचारित्र के दो भेद किरहि ऐक सम्यक्त्वांचरण चारित्र और दूसरा संयमाचरण चारित्रमा निशिंकित आदि ओठ गुणों से