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________________ आचार्य कुंदकुंददेव १२५ अर्थात् ज्ञानस्वरूप है । क्रोधादि भाव जड़स्वरूप हैं। अतः उपयोग, अर्थात् आत्मा में क्रोधादि भाव नहीं हैं। क्रोधादि भावों में तथा कर्म और नोकर्म में उपयोग नहीं है इस भेद को जानना ही भेदविज्ञान है । भेदविज्ञान से शुद्धात्मा की उपलब्धि और शुद्धात्मा की उपलब्धि से मिथ्यात्वादि अध्यवसानों का अभाव होता है । अध्यवसान के निरोध से आस्त्रा का निरोध होता है । आस्रव निरोध से कर्मों का निरोध और कर्मों के निरोध से संसार का निरोध होता है । निर्जराधिकार :-- सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रियों के माध्यम से चेतन-अचेतन द्रव्यों का जो उपभोग करता है, वह उपभोग निर्जरा काही कारण है बंध का नहीं; क्योंकि सम्यग्दृष्टि को ज्ञान और वैराग्य की अद्भुत और अपूर्व शक्ति प्राप्त हुई है। ज्ञानी कर्मोदयजन्य भोग भोगता है, परन्तु कर्मों से नहीं बंधता । अनुभव में आनेवाला जो यह राग परिणाम है वह तो कर्मोदय का फल है, वह मेरा निजभाव नहीं है मैं तो शुद्ध ज्ञायक हूँ।" ऐसा जाननेवाला ज्ञानी कर्मोदयजन्य परिणामों का त्याग करता है । बन्धाधिकार :- आत्मा और पौद्गलिक कर्म दोनों स्वतंत्र हैं - एक चेतन और दूसरा अचेतन । तथापि अनादि से इन दोनों का सहज निमित्त - नैमितिक सम्बन्ध है । दोनों में परस्पर लोह तथा चुम्बक की तरह आकर्षित होने और आकर्षित करने की स्वाभाविक योग्यता है। अपनी-अपनी योग्यता से दोनों (जीव-मुद्गल) एक क्षेत्रावगाही हैं। अज्ञानी इन्द्रिय-विषयों में राग-द्वेष करता हुआ कर्मों से बंधता है और ज्ञानी ज्ञानरूप अपने आत्मस्वभाव में लीन होने से कर्मों से मुक्त होता रहता है ।
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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