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आचार्य कुंदकुंददेव
इस प्रकार आत्मकल्याण के साथ-साथ परकल्याण की स्वाभाविक भावना से आचार्य परमेष्ठी ने सभी तीर्थंकर परमदेवों की दिव्यध्वनि के सार को और स्वानुभूत सत्य को लोकमंगलकर ग्रन्थरत्नों में निबद्ध करके जगत के भव्य जीवों पर महान उपकार किया । इस महामानव ने ६५ वर्ष, १० मास, १५ दिवस पर्यन्त दीर्घ मनुष्य-जीवन सफल रीति से व्यतीत कर ई. सं. पूर्व १२ में समाधि मरण पूर्वक स्वर्गारोहण किया ।
कलिकाल सर्वज्ञ आचार्यदेव ने इस संध्याचल की पर्वत श्रृंखलाओं के उत्तुंग शिखर पर आकर दीर्घकाल तक तपस्या की थी, अतः उनकी महिमा से ही अर्थात् आचार्यदेव के नाम के कारण ही इस उत्तुंग शिखर को "कुन्द्राद्रि” नाम से लोग भक्ति और आनंदपूर्वक पुकारने लगे । यह स्थान आचार्य की तपोभूमि बन जाने से लोग इस स्थान को पवित्र मानने लगे। स्वाभाविक ही यह पर्वत तीर्थक्षेत्र हो गया ।
इस पर्वत पर बारहवीं शताब्दी में तैलप राजा ने पार्श्व जिनालय का निर्माण कराया था । राजवैभव के साथ जिनबिम्ब का भक्ति और उत्साह से पंचकल्याणक प्रतिष्ठा भी कराई थी । इस महोत्सव के कारण ही तैलप राजा कर्नाटक का सार्वभौम तैलप राजा नाम से प्रख्यात हुआ ।
इस दुर्गम पर्वत पर दर्शन के लिए सुगमता से जाना संभव हो इस पुण्यमय हेतु से गुड्डेकेरि नामक ग्राम के निवासी श्रीमती
१. डॉ. राजमल्लजी पांडे लिखित "विक्रमादित्य” पृष्ठ- १६१
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