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________________ आचार्य कुंदकुंददेव ग्रंथ के आखिर में साक्षात् अनुभव द्वारा स्वयं गाथा में लिखा है- "जो आत्मा (भव्य जीव) इस समयप्रामृत को पढ़कर, अर्थ और तत्व से जानकर, उसके अर्थ में स्थित होगा, वह उत्तम सौख्यस्वरूप होगा ।" ११० समयसार सदृश लोकोत्तर महिमायुक्त, महान, श्रेष्ठ अर्थात् लोकोत्तम कृति निर्माण करने पर भी आचार्य का हाथ श्रांन्त नहीं हुआ । तत्काल ही निश्चय चारित्र की प्रधानता से मोक्षमार्ग का स्पष्ट और सत्यार्थ निरूपक नियमसार की रचना में लग गये । प्रमत्त और अप्रमत्त अवस्थास्वरूप झूले में निरन्तर झूलनेवाले आचार्यदेव ने त्रिकाली ध्रुव द्रव्य से पर्याय की एकता की साधना करते हुए परमपारिणामिक भाव के यथार्थ आश्रय से समुत्पन्न स्वसंवेदन सुख को संक्षेप में इस ग्रंथ में लिपिबद्ध किया है । कारणशुद्ध पर्याय, कारण समयसार, कार्य समयसार, सहजदर्शन, सहज ज्ञान आदि सूक्ष्म और अनुभवगम्य विषयों का खुलासा किया है । अपनी आत्मसन्मुख वृत्ति को भी अत्यन्त मार्मिक शब्दों में स्पष्ट करते हुए अंतिम मंगल किया है : पूर्वापर दोष रहित जिनोपदेश को जानकर मैंने निजभावना निमित्त से नियमसार नाम का शास्त्र किया है। १. जो समयपाहुडमिणं पढ़िदूण अत्यदच्चदो जादु । अत्ये ठाही चेदा, सो होही उत्तमं सोक्खं ॥ ४१५|| २. णियभावणानिमित्तं भए कदं नियमसारणाम सुदं । गच्चा जिणोवददेसं, पुव्वावरदोसणिम्मुक्कं ॥१८७||
SR No.010069
Book TitleKundakundadeva Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorM B Patil, Yashpal Jain, Bhartesh Patil
PublisherDigambar Jain Trust
Publication Year
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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