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पंचास्तिकायसंग्रह ]
[८१ उक्त जीव और अजीव मूलपदार्थों के व्याख्यान के बाद उनके संयोग से निष्पन्न शेष सात पदार्थों के उपोद्घात के लिए तीन गाथाओं में जीवकर्म (भावकर्म) और पुद्गलकर्म (द्रव्यकर्म) के दुश्चक्र का वर्णन किया गया है। इसके बाद चार गाथाओं में पुण्यपाप पदार्थ का व्याख्यान किया है।
इसके बाद छह गाथाओं (१३५ से १४०) में प्रास्रव पदार्थ का निरूपण है। विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि आस्रव के कारणों में अरिहंतादि की भक्ति को भी गिनाया है। उक्त प्रकरण में समागत भक्ति के संदर्भ में आचार्य अमृतचन्द्र का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है :
"अयं हि स्थललक्ष्यतया केवलभक्तिप्रधानस्याज्ञानिनो भवति । उपरितन भूमिकायामलब्धास्पदस्यास्थानरागनिषेधार्थ तीवरागज्वरविनोदार्थ वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवतीति ।'
इसप्रकार का राग मुख्यरूप से मात्र भक्ति की प्रधानता और स्थूल लक्ष्यवाले अज्ञानियों को होता है । उच्च भूमिका में स्थिति न हो तो, तब तक प्रस्थान का राग रोकने अथवा तीव्ररागज्वर मिटाने के हेतु से कदाचित् ज्ञानियों को भी होता है।"
इसीप्रकार १३७वीं गाथा की 'समयव्याख्या' नामक टीका में समागत अनुकम्पा का स्वरूप भी द्रष्टव्य है :
"अनुकम्पास्वरूपाख्यानमेतत् । कञ्चिदुदन्यादिवुःखप्लुतमवलोक्य करुणया तत्प्रतिचिकीर्षाकुलितचित्तत्वमशानिनोऽनुकम्पा । ज्ञानिनस्त्वधस्तनभूमिकासु विहरमारणस्य जन्मार्णवनिमग्नजगदवलोकनान्मनाग्मनःखेद इति ।
यह अनुकम्पा के स्वरूप का कथन है। किसी तृषादि दुःख से पीड़ित प्राणी को देखकर करुणा के कारण उसका प्रतिकार करने की इच्छा से चित्त में आकुलता होना अज्ञानी की अनुकम्पा है। ज्ञानी की अनुकम्पा तो निचली भूमिका में विचरते हुए स्वयं को विकल्प के
'पंचास्तिकायसंग्रह गाथा १३६ की 'समयव्याख्या' टीका