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[ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम
उनकी हलन चलन क्रिया देखकर 'वसन्तीति श्रसाः - जो चले-फिरे सो अस' - इस निरुक्ति के अनुसार किया गया अर्थ ही जानना चाहिए | 'द्वीन्दियादयः त्रसाः' - इस तत्वार्थसूत्रवाली परिभाषा को यहाँ घटित नहीं करना चाहिये ।
अन्त में सिद्धों की चर्चा है । साथ में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि ये सब कथन व्यवहार का है, निश्चय से ये सब जीव नहीं हैं ।
उक्त कथन करनेवाली मूल गाथा इसप्रकार है :
"रण हि इंदियारिण जीवा काया पुरण छप्पयार पण्णत्ता । जं हवदि तेसु गाणं जीवो त्ति य तं पति ।।'
इन्द्रियाँ जीव नहीं हैं और जिनागम में कथित पृथ्वीकायादि छह प्रकार की कायें भी जीव नहीं हैं, उनमें रहनेवाला ज्ञान ही जीव है - ज्ञानीजनों द्वारा ऐसी ही प्ररूपणा की जाती है ।"
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१२४वीं गाथा से १२७वीं गाथा तक अजीव पदार्थ का वर्णन है, जिसमें बताया गया है कि सुख-दुःख के ज्ञान तथा हित के उद्यम और अहित के भय से रहित पुद्गल व श्राकाशादि द्रव्य अजीव हैं । संस्थान, संघात, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णादि गुरण व पर्यायें पुद्गल की हैं; आत्मा तो इनसे भिन्न अरस, अरूप, अगंध, अशब्द, अव्यक्त, इन्द्रियों द्वारा अग्राह्य एवं अनिर्दिष्ट संस्थानवाला है ।
ध्यान रहे, प्राचार्य कुन्दकुन्द के पाँचों परमागमों में प्राप्त होने वाली 'अरसमरूवमगंध' आदि गाथा इस पंचास्तिकाय संग्रह की १२७वीं गाथा है और अजीव पदार्थ के व्याख्यान में आई है । इस गाथा की टीका के अन्त में प्राचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं :
" एवमिह जीवाजीवयोर्वास्तवो मेवः सम्यग्ज्ञानिनां मार्गप्रसिद्धयर्थं प्रतिपादित इति ।
इसप्रकार यहाँ जीव और अजीव का वास्तविक भेद सम्यग्ज्ञानियों के मार्ग की प्रसिद्धि के हेतु प्रतिपादित किया गया ।"
१ पंचास्तिकायसंग्रह, गाया १२१