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प्रवचनसार ]
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होता है; अतः इस अधिकार में उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य एवं उत्पाद-व्ययघोव्यात्मक वस्तु का गहराई से चिन्तन किया गया है ।
सत्, सत्ता, अस्तित्व - सभी एकार्थवाची हैं। वस्तु की सत्ता या अस्तित्व के सिद्ध हुए बिना उसका विस्तृत विवेचन संभव नहीं है । अतः इसमें सर्वप्रथम सत्ता के स्वरूप पर सतकं विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है, जो मूलतः पठनीय है ।
महासत्ता ( सादृश्य- अस्तित्व ) एवं अवान्तरसत्ता ( स्वरूपा - स्तित्व ) के भेद से सत्ता ( अस्तित्व) दो प्रकार की होती है ।
यद्यपि सभी द्रव्य सत्रूप ही हैं, प्रस्तित्वमय हैं, सत्तास्वरूप हैं; तथापि प्रत्येक द्रव्य की सत्ता स्वतंत्र है । अतः सत्सामान्य की दृष्टि से महासत्ता की अपेक्षा सभी एक होने पर भी सभी का स्वरूप भिन्नभिन्न होने से सभी का अस्तित्व स्वतंत्र है । सभी द्रव्यों की एकता सादृश्यास्तित्व पर आधारित होने से समानता के रूप में ही है, अभिन्नता के अर्थ में नहीं ।
यह अधिकार जैनदर्शन की रीढ़ है, क्योंकि इसमें प्रतिपादित विषय-वस्तु जैनदर्शन का हार्द है । यद्यपि यह सम्पूर्ण अधिकार गहराई से अनेक बार मूलतः पठनीय है; तथापि इसमें समागत कतिपय महत्त्वपूर्ण बातों की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करने के लोभ का संवरण कर पाना मुझसे संभव नहीं हो पा रहा है ।
दो द्रव्यों के बीच की भिन्नता को पृथकता एवं एक ही द्रव्य के गुरण-पर्यायों के बीच की भिन्नता को अन्यता के रूप में इस अधिकार में जिसप्रकार परिभाषित किया है, वह अपने आप में अद्भुत है ।
विभक्तप्रदेशत्व पृथक्त्व का लक्षण है और अतद्भाव अन्यत्व का लक्षरण है । जिन पदार्थों के प्रदेश भिन्न-भिन्न हैं, उन्हें पृथक्-पृथक् कहा जाता है; पर जिनके प्रदेश अभिन्न हैं- ऐसे द्रव्य, गुरण, पर्याय परस्पर अन्य-अन्य तो हैं; पर पृथक्-पृथक् नहीं ।
जीव और पुद्गल पृथक्-पृथक् हैं; अथवा दो जीव भी अभिन्न नहीं, पृथक्-पृथक् ही हैं; पर ज्ञान और दर्शन पृथक्-पृथक् नहीं,