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________________ [ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम शुद्धोपयोगाय ६० ] "स्वस्ति च यत्प्रसादादयमात्मा स्वयमेव धर्मो परमवीतरागचारित्रात्मने " मूतः जिसके प्रसाद से मेरा यह आत्मा स्वयं धर्म हो गया, धर्ममय हो गया, वह परमवीतरागचारित्ररूप शुद्धोपयोग सदा जयवन्त वर्तो ।” इसप्रकार हम देखते हैं कि इस ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार में अनन्त ज्ञान एवं प्रतीन्द्रिय श्रानन्द की प्राप्ति के एकमात्र हेतु शुद्धोपयोग का एवं उससे उत्पन्न अतीन्द्रियज्ञान (सर्वज्ञता ) एवं अतीन्द्रिय आनन्द का तथा सांसारिक सुख और उसके कारणरूप शुभ परिणामों का सम्यक् विवेचन प्रस्तुत करते हुए अशुद्धोपयोग रूप शुभाशुभ परिणामों को त्यागकर सम्यग्दर्शन-ज्ञान पूर्वक शुद्धोपयोगरूप वीतराग चारित्र ग्रहण करने की पावन प्रेरणा दी गई है। (२) ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार इसके बाद ९३वीं गाथा से २०० वीं गाथा तक ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार चलता है । यद्यपि वस्तुस्वरूप के प्रतिपादक होने से इस महाघिकार में मूलरूप से दो अवान्तर अधिकार ही होने चाहिए: द्रव्यसामान्याधिकार और द्रव्यविशेषाधिकार; तथापि समस्त जिनागम का मूल प्रयोजन तो ज्ञान और ज्ञेय (स्व-पर) के बीच भेदविज्ञान करना ही है, अतः इसमें एक ज्ञान- ज्ञेय विभागाधिकार नामक तीसरा अधिकार भी है । ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन एवं ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन के उपसंहारात्मक इस अंश को ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार में ही सम्मिलित कर लिया गया । इसप्रकार इस महाधिकार में तीन अवान्तर अधिकार हैं :द्रव्यसामान्याधिकार, द्रव्य विशेषाधिकार एवं ज्ञान ज्ञेय विभागाधिकार । ९३वीं से १२६वीं गाथा तक चलने वाले द्रव्यसामान्याधिकार में समस्त द्रव्यों के सामान्य स्वरूप पर विचार किया गया है । गुणपर्याय वाले द्रव्यों का लक्षण सत् है और सत् उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यमय १ प्रवचनसार गाथा ६२ की तत्त्वदीपिका टीका
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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