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________________ ४४ ] [ श्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम सम्यग्दृष्टि ज्ञानी धर्मात्मा के प्रास्रव के प्रभावरूप संवर पूर्वक निज भगवान श्रात्मा का उग्र आश्रय होता है, उसके बल से आत्मा में उत्पन्न शुद्धि की वृद्धिपूर्वक जो कर्म खिरते हैं, उसे निर्जरा कहते हैं । शुद्धि की वृद्धि भावनिर्जरा है और कर्मों का खिरना द्रव्यनिर्जरा । कविवर बनारसीदासजी ने निर्जरा की वंदना करते हुए उसका स्वरूप इसप्रकार स्पष्ट किया है : "जो संवरपर पाइ अनंदे । सो पूरवकृत कर्म निकंदे ॥ जो प्रकंद बहुरि न फेंदं । सो निरजरा बनारसि वंदे ॥" निर्जरा अधिकार के आरंभ में ही आचार्य कहते हैं : "वभोगमदह बण्वारणमवेदरणारणमिवराणं । जं कुर्णादि सम्मविट्ठी तं सव्वं रिगज्जर रिणमित्तं ॥ जह विसमुबभुंजंतो वेज्जो पुरिसो ण मरणमुवयादि । पोग्गलकम्मस्सुवयं तह भुंजवि व बज्भवे खाणी ॥ जह मज्जं पिबमाणो अरवीभावेण मज्जदि रग पुरिसो । दब्बुवभोगे परदो गाणी दि रग बज्झदि तहेव ॥ २ सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रियों के द्वारा जो अचेतन और चेतन द्रव्यों का उपभोग करता है, वह सर्व निर्जरा का निमित्त होता है । जिसप्रकार वैद्य पुरुष विष को भोगता हुआ भी मरण को प्राप्त नहीं होता, उसीप्रकार ज्ञानी पुरुष पुद्गलकर्म के उदय को भोगता हुआ भी बंध को प्राप्त नहीं होता । जिसप्रकार मदिरा को प्रतिभाव से पीनेवाला पुरुष मतवाला नहीं होता, उसीप्रकार ज्ञानी भी द्रव्यों के उपभोग के प्रति भरत रहने से बंध को प्राप्त नहीं होता।" सम्यग्दष्टि ज्ञानी धर्मात्मा को क्रिया करते हुए एवं उसका फल भोगते हुए भी यदि कर्मबंध नहीं होता है और निर्जरा होती है तो १ समयसार नाटक, निर्जराद्वार, छन्द २ 2 समयसार, गाथा १६३, १६५ व १६६
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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