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________________ समयसार ] [ ३६ पुण्य को अच्छा और पाप को बुरा मानते हैं । अज्ञानजन्य इस मान्यता का निषेध करने के लिए ही प्राचार्य कुन्दकुन्द ने पुण्य-पाप अधिकार का प्रणयन किया है। वे अधिकार के प्रारंभ में ही लिखते हैं - "कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं । कह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि । सोवणियं पिरिणयलं बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं । बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ॥ तम्हा दु कुसीलेहि य रागं मा कुरणह मा व संसग्गं । साहीगो हि विणासो कुसोलसंसग्गरायेण ॥' अज्ञानीजनों को संबोधित करते हुए प्राचार्य कहते हैं कि तुम ऐसा जानते हो कि शुभकर्म सुशील है और अशुभकर्म कुशील है, पर जो शुभाशुभ कर्म संसार में प्रवेश कराते हैं, उनमें से कोई भी कर्म सुशील कैसे हो सकता है ? ___जिसप्रकार लोहे की बेड़ी पुरुष को बांधती है, उसीप्रकार सोने की बेड़ी भी बाँधती ही है । इसीप्रकार जैसे अशुभ (पाप) कर्म जीव को बांधता है. वैसे ही शुभ (पुण्य) कर्म भी जीव को बाँपता ही है । बंधन में डालने की अपेक्षा पुण्य-पाप दोनों ही कर्म समान ही है। सचेत करते हुए प्राचार्य कहते हैं कि इसलिए पुण्य-पाप इन दोनों कुशीलों के साथ राग मत करो, संसर्ग भी मत करो, क्योंकि कुशील के साथ संसर्ग और राग करने से स्वाधीनता का नाश होता है।" उक्त संदर्भ में समयसार नाटक के पुण्य-पाप अधिकार में समागत कतिपय महत्त्वपूर्ण छन्द इसप्रकार हैं :पापबंध पुन्नबंध दुहूं मैं मुकति नाहि, ___ कटुक मधुर स्वाद पुग्गल को पेखिए । संकलेस विसुद्ध सहज दोऊ कर्मचाल, कुगति सुगति जगजाल मैं विसेखिए । १ समयसार, गाथा १४५ से १४७
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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