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________________ ३८ ] [ प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम है। इसप्रकार अनेक उदाहरणों द्वारा परकर्तृत्व के व्यवहार की स्थिति स्पष्ट करते हुए प्राचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं : "उप्पादेवि करेदि य वंषदि परिणामएवि गिहदि य । प्रादा पोग्गलदव्वं ववहारणयस्स वत्तग्वं ।' आत्मा पुद्गल द्रव्य को करता है, उत्पन्न करता है, बांधता है, परिणमन कराता है और ग्रहण करता है - यह सब व्यवहारनप का कथन है।" वास्तव में देखा जाय तो आत्मा का परद्रव्य के साथ कोई भी संबंध नहीं है। . अज्ञानी आत्मा देहादि परपदार्थों एवं रागादि विकारों को निजरूप ही मानता है या फिर उन्हें अपना मानकर उनसे स्व-स्वामी सम्बन्ध स्थापित करता है, उनका स्वामी बनता है। यदि कदाचित् उन्हें अपना न भी माने तो भी उनका कर्ता-भोक्ता तो बनता ही है। इसप्रकार अज्ञानी के पर से एकत्व-ममत्व एवं कर्तृत्व-भोक्तृत्व पाये जाते हैं । उक्त चारों ही स्थितियों को अध्यात्म की भाषा में पर से अभेद ही माना जाता है। अतः पर से एकत्व-ममत्व एवं कर्तृत्वभोक्तृत्व तोड़ना ही भेदविज्ञान है । जीवाजीवाधिकार में पर से एकत्व-ममत्व और कर्ता-कर्म-अधिकार में पर के कर्तृत्व-भोक्तृत्व का निषेध कर भेदविज्ञान कराया गया है । इसप्रकार उक्त दोनों ही अधिकार भेदविज्ञान के लिए ही समर्पित हैं। ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों एवं रागादि भावकों को पुण्य-पाप के रूप में भी विभाजित किया जाता है । इसप्रकार शुभभाव एवं शुभकर्मों को पुण्य एवं अशुभभावे एवं अशुभकर्मों को पाप कहा जाता है। यद्यपि शुभाशुभरूप पुण्य और पाप दोनों ही कर्म हैं, कर्मबंध के कारण हैं, आत्मा को बंधन में डालनेवाले हैं; तथापि अज्ञानीजन १ समयसार, गाथा १०७
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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