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[प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनके पंच परमागम अलग से सूत्र बनाये, जिनमें शिथिलाचार-पोषक अनेक कथायें लिख कर अपना सम्प्रदाय दृढ़ किया। यह सम्प्रदाय अबतक प्रसिद्ध है।
इनके अलावा जो जिनसूत्र की आज्ञा में रहे, उनका आचार यथावत् रहा, प्ररूपणा भी यथावत् रही; वे दिगम्बर कहलाये। इस सम्प्रदायानुसार श्री वर्द्धमान स्वामी को निर्वाण प्राप्त करने के ६८३ वर्ष के बाद दूसरे भद्रबाहुस्वामी हुए; उनकी परिपाटी में कितने ही वर्ष बाद मुनि हुए, जिन्होंने सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया ।
एक तो घरसेन नामक मुनि हुए, उनको अग्रायणी पूर्व के पांचवें वस्तु अधिकार में महाकर्मप्रकृति नामक चौथे प्राभृत का ज्ञान था । उन्होंने यह प्राभृत भूतबली और पुष्पदन्त नाम के मुनियों को पढ़ाया। उन दोनों मुनियों ने आगामी काल-दोष से बुद्धि की मन्दता जानकर उस प्राभृत के अनुसार षट्खण्डसूत्र की रचना करके पुस्तकरूप लिखकर उसका प्रतिपादन किया। उनके बाद जो मुनि (वीरसेन) हुए, उन्होंने उन्हीं सूत्रों को पढ़कर विस्तार से टीका करके धवल, महाघवल, जयधवल आदि सिद्धान्तों की रचना की। उनके बाद उन्हीं टीकाओं को पढ़कर श्री नेमिचन्द्र आदि आचार्यों ने गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार आदि शास्त्र बनाये।
- इसप्रकार यह प्रथम सिद्धान्त की उत्पत्ति है । इसमें जीव और कर्म के संयोग से उत्पन्न हुई आत्मा की संसारपर्याय के विस्तार का गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि रूप में संक्षेप से वर्णन है । यह कथन तो पर्यायाथिकनय को मुख्य करके है; इस ही नय को अशुद्धद्रव्यार्थिक नय भी कहते हैं तथा इसी को अध्यात्मभाषा में अशुद्धनिश्चयनय व व्यवहारनय भी कहते हैं ।
भद्रबाहु स्वामी की परम्परा में ही दूसरे गुणधर नामक मुनि हुए । उनको ज्ञानप्रवाद पूर्व के दसवें वस्तु अधिकार में तीसरे प्राभृत का ज्ञान था। उनसे उस प्राभृत को नागहस्ति नामक मुनि ने पढ़ा । उन दोनों मुनियों से यतिनायक नामक मुनि ने पढ़का उसकी चूर्णिका रूप में छह हजार सूत्रों के शास्त्र की रचना की, जिसकी टीका समुद्धरण नामक मुनि ने बारह हजार सूत्र प्रमाण की।