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आचार्य कुन्दकुन्द ]
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पर रोक लगावें, अन्यथा उनसे लाभ के स्थान पर हानि होने की संभावना अधिक रहती है ।
कल्पना कीजिए कि आचार्यदेव कहते कि मैं विदेह होकर आया हूँ, सीमन्धर परमात्मा के दर्शन करके आया हूँ. उनकी दिव्यध्वनि सुनकर थाया हूँ; इस पर यदि कोई यह कह देता कि क्या प्रमारण है इस बात का, तो क्या होता ? क्या आचार्यदेव उसके प्रमाण पेश करते फिरते ? यह स्थिति कोई अच्छी तो नहीं होती ।
अतः प्रौढ़ विवेक के घनी प्राचार्यदेव ने विदेहगमन की चर्चा न करके अच्छा ही किया है; पर उनके चर्चा न करने से उक्त घटना को अप्रामाणिक कहना देवसेनाचार्य एवं जयसेनाचार्य जैसे दिग्गज आचार्यों पर अविश्वास व्यक्त करने के अतिरिक्त और क्या है ? उपलब्ध शिलालेखों एवं उक्त श्राचार्यों के कथनों के आधार पर यह तो सहज सिद्ध ही है कि वे सदेह विदेह गये थे और उन्होंने सीमन्धर परमात्मा के साक्षात् दर्शन किये थे, उनकी दिव्यध्वनि का श्रवरण किया था ।
भगवान महावीर की उपलब्ध प्रामाणिक श्रुतपरम्परा में प्राचार्य कुन्दकुन्द के अद्वितीय योगदान की सम्यक् जानकारी के लिए पूर्वपरम्परा का सिंहावलोकन अत्यन्त आवश्यक है । समयसार के श्रद्य भाषाटीकाकार पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा समयसार की उत्पत्ति का सम्बन्ध बताते हुए लिखते हैं :
"यह श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव कृत गाथावद्ध समयसार नामक ग्रन्थ है । उसको श्रात्मख्याति नामक श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव कृत संस्कृत टीका है । इस ग्रन्थ की उत्पत्ति का सम्बन्ध इसप्रकार है कि अन्तिम तीर्थंकरदेव सर्वज्ञ वीतराग परम भट्टारक श्री वर्द्धमान स्वामी के निर्वारण जाने के बाद पाँच श्रुतकेवली हुए, उनमें अन्तिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामी हुए ।
वहाँ तक तो द्वादशांग शास्त्र के प्ररूपरण से व्यवहार - निश्चयात्मक मोक्षमार्ग यथार्थ प्रवर्तता रहा, बाद में काल-दोष से अंगों के ज्ञान की व्युच्छित्ति होती गई और कितने ही मुनि शिथिलाचारी हुए, जिनमें श्वेताम्बर हुए, उन्होंने शिथिलाचार - पोषण करने के लिए