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________________ आचार्य कुन्दकुन्द ] [ २३ नहीं जोड़ते ? न भी जोड़ें तो भी उनका उल्लेख तो किया ही जा सकता था, उनका नामोल्लेखपूर्वक स्मरण तो किया ही जा सकता था? उक्त शंकाओं के समाधान के लिए हमें थोड़ा गहराई में जाना होगा। आचार्य कुन्दकुन्द बहुत ही गम्भीर प्रकृति के निरभिमानी जिम्मेदार प्राचार्य थे। वे अपनी जिम्मेदारी को भलीभांति समझते थे; अतः अपने थोड़े से यशलाभ के लिए वे कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते थे, जिससे सम्पूर्ण आचार्यपरम्परा व दिगम्बर दर्शन प्रभावित हो । यदि वे ऐसा कहते कि मेरी बात इसलिए प्रामाणिक है, क्योंकि मैंने सीमन्धर परमात्मा के साक्षात् दर्शन किए हैं, उनकी दिव्यध्वनि का साक्षात श्रवण किया है तो उन प्राचार्यों की प्रामाणिकता संदिग्ध हो जाती, जिनको सीमन्धर परमात्मा के दर्शनों का लाभ नहीं मिला था या जिन्होंने सीमन्धर परमात्मा से साक्षात् तत्वश्रवण नहीं किया था, जो किसी भी रूप में ठीक नहीं होता। दूसरी बात यह भी तो है कि विदेहक्षेत्र तो वे मुनि होने के बाद गए थे। वस्तुस्वरूप का सच्चा परिज्ञान तो उन्हें पहले ही हो चुका था। यह भी हो सकता है कि उन्होंने अपने कुछ ग्रन्थों की रचना पहले ही कर ली हो। पहले निमित ग्रन्थों में तो उल्लेख का प्रश्न ही पैदा नहीं होता, पर यदि बाद के ग्रन्थों में उल्लेख करते तो पहले के ग्रन्थों की प्रामाणिकता पर प्रश्नचिह्न लग जाता । अतः उन्होंने जानबूझकर स्वयं को महावीर और भद्रबाहु श्रुतकेवली की आचार्यपरम्परा से जोड़ा। यदि वे अपने को सीमन्घर तीर्थकर अरहंत की परम्परा से जोड़ते या जुड़ जाते तो दिगम्बर धर्म को अत्यधिक हानि उठानी पड़ती। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भगवान महावीर साधु अवस्था में सम्पूर्णतः नग्न थे । अतः हमारे श्वेताम्बर भाई अपने को महावीर की अचेलक परम्परा से न जोड़कर पार्श्वनाथ की सचेलक परम्परा से जोड़ते हैं। इसप्रकार वे अपने को दिगम्बर से प्राचीन सिद्ध करना
SR No.010068
Book TitleKundakunda Aur Unke Panch Parmagama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1988
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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